01
राग हमीर
बसो मोरे नैनन
में नँदलाल ।। टेक ।।
मोहनी मूरति
साँवरी सूरति, नैणा बने बिसाल ।
अधर सुधारस
मुरली राजति, उन बैजंती माल[1] ।
छुद्र घंटिका
कटि तट सोभित, नूपुर सबद रसाल ।
मीराँ प्रभु
संतन सुखदाई, भक्त बछल गोपाल ।।3।।
बसो = छाये रहो। सूरति = स्वरूप। बने = शोभा दे
रहे हैं। सुधारस = अमृत जैसा माधुर्य उत्पन्न करने वाली। राजित = शोभित है।
वैजन्ती माल = वैजन्ती नाम की माला जिसे भगवान् विष्णु धारण करते हैं। छुद्र घटिका
= घुंघरूदार करधनी। कटितट = कटि प्रदेश वा कमर में। सबद = शब्द, ध्वनि। रसाल = मधुर। भक्तवछल = भक्तवत्सल वा भक्तों को प्यार
करने वाले
02
मेरे तो गिरधर
गोपाल दूसरो न कोई॥
जाके सिर है
मोरपखा मेरो पति सोई।
तात मात भ्रात
बंधु आपनो न कोई॥
छांड़ि दई कुलकी
कानि कहा करिहै कोई॥
संतन ढिग बैठि
बैठि लोकलाज खोई॥
चुनरीके किये
टूक ओढ़ लीन्हीं लोई।
मोती मूंगे उतार
बनमाला पोई॥
अंसुवन जल
सींचि-सींचि प्रेम-बेलि बोई।
अब तो बेल फैल
गई आणंद फल होई॥
दूध की मथनियां
बड़े प्रेम से बिलोई।
माखन जब काढ़ि
लियो छाछ पिये कोई॥
भगति देखि राजी
हुई जगत देखि रोई।
दासी मीरा लाल
गिरधर तारो अब मोही॥
गिरधर-पर्वत
को धारण करने वाला यानी कृष्ण। गोपाल-गाएँ पालने वाला, कृष्ण। मोर मुकुट-मोर के पंखों का बना
मुकुट। सोई-वही। जा के-जिसके। छाँड़ि दयी-छोड़ दी। कुल की कानि-परिवार की मर्यादा।
करिहै-करेगा। कहा-क्या। ढिग-पास। लोक-लाज-समाज की मर्यादा। असुवन-आँसू।
सींचि-सींचकर। मथनियाँ-मथानी। विलायी-मथी। दधि-दही। घृत-घी। काढ़ि लियो-निकाल
लिया। डारि दयी-डाल दी। जगत-संसार। तारो-उद्धार। छोयी-छाछ, सारहीन अंश। मोहि-मुझे।
प्रसंग-प्रस्तुत पद पाठ्यपुस्तक आरोह भाग-1 में संकलित मीराबाई के पदों से लिया
गया है। इस पद में उन्होंने भगवान कृष्ण को पति के रूप में माना है तथा अपने
उद्धार की प्रार्थना की है।
व्याख्या-मीराबाई कहती हैं कि मेरे तो गिरधर
गोपाल अर्थात् कृष्ण ही सब कुछ हैं। दूसरे से मेरा कोई संबंध नहीं है। जिसके सिर
पर मोर का मुकुट है, वही मेरा
पति है। उनके लिए मैंने परिवार की मर्यादा भी छोड़ दी है। अब मेरा कोई क्या कर
सकता है? अर्थात्
मुझे किसी की परवाह नहीं है। मैं संतों के पास बैठकर ज्ञान प्राप्त करती हूँ और इस
प्रकार लोक-लाज भी खो दी है। मैंने अपने आँसुओं के जल से सींच-सींचकर प्रेम की बेल
बोई है। अब यह बेल फैल गई है और इस पर आनंद रूपी फल लगने लगे हैं। वे कहती हैं कि
मैंने कृष्ण के प्रेम रूप दूध को भक्ति रूपी मथानी में बड़े प्रेम से बिलोया है।
मैंने दही से सार तत्व अर्थात् घी को निकाल लिया और छाछ रूपी सारहीन अंशों को छोड़
दिया। वे प्रभु के भक्त को देखकर बहुत प्रसन्न होती हैं और संसार के लोगों को
मोह-माया में लिप्त देखकर रोती हैं। वे स्वयं को गिरधर की दासी बताती हैं और अपने
उद्धार के लिए प्रार्थना करती हैं।
विशेष-
1. मीरा कृष्ण-प्रेम के लिए परिवार व समाज
की परवाह नहीं करतीं।
2. मीरा की कृष्ण के प्रति अनन्यता व
समर्पण भाव व्यक्त हुआ है।
3. अनुप्रास अलंकार की छटा है।
4. ‘बैठि-बैठि’, ‘सींचि-सींचि’ में पुनरुक्तिप्रकाश
अलंकार है।
5. माधुर्य गुण है।
6. राजस्थानी मिश्रित ब्रजभाषा का सुंदर
रूप है।
7. ‘मोर-मुकुट’, ‘प्रेम-बेलि’, ‘आणद-फल’ में रूपक अलंकार है।
8. संगीतात्मकता व गेयता है
शब्दार्थ :-
कानि =मर्यादा, लोकलाज। अंसुवन जल = अश्रुरूपी जल से।
आणद =आनन्दमय। फल =परिणाम। राजी =खुश। रोई =दुखी हुई।
03
पग घूँघरू बाँध मीरा नाची रे।
मैं
तो मेरे नारायण की आपहि हो गई दासी रे।
लोग
कहै मीरा भई बावरी न्यात कहै कुलनासी रे॥
विष
का प्याला राणाजी भेज्या पीवत मीरा हाँसी रे।
'मीरा' के प्रभु गिरिधर नागर
सहज मिले अविनासी रे॥
पग-पैर।
नारायण-ईश्वर। आपहि-स्वयं ही। साची-सच्ची। भई-होना। बावरी-पागल। न्यात-परिवार के
लोग, बिरादरी।
कुल-नासी-कुल का नाश करने वाली। विस-जहर। पीवत-पीती हुई। हाँसी-हँस दी।
गिरधर-पर्वत उठाने वाले। नागर-चतुर। अविनासी-अमर।
प्रसंग-प्रस्तुत पद पाठ्यपुस्तक आरोह भाग-1 में संकलित प्रसिद्ध कृष्णभक्त
कवयित्री मीराबाई के पदों से लिया गया है। इस पद में, उन्होंने कृष्ण प्रेम की अनन्यता व
सांसारिक तानों का वर्णन किया है।
व्याख्या-मीराबाई कहती हैं कि वह पैरों में
धुंघरू बाँधकर कृष्ण के समक्ष नाचने लगी है। इस कार्य से यह बात सच हो गई कि मैं
अपने कृष्ण की हूँ। उसके इस आचरण के कारण लोग उसे पागल कहते हैं। परिवार और
बिरादरी वाले कहते हैं कि वह कुल का नाश करने वाली है। मीरा विवाहिता है। उसका यह
कार्य कुल की मान-मर्यादा के विरुद्ध है। कृष्ण के प्रति उसके प्रेम के कारण राणा
ने उसे मारने के लिए विष का प्याला भेजा। उस प्याले को मीरा ने हँसते हुए पी लिया।
मीरा कहती हैं कि उसका प्रभु गिरधर बहुत चतुर है। मुझे सहज ही उसके दर्शन सुलभ हो
गए हैं।
विशेष-
1. कृष्ण के प्रति मीरा का अटूट प्रेम
व्यक्त हुआ है।
2. मीरा पर हुए अत्याचारों का आभास होता
है।
3. अनुप्रास अलंकार की छटा है।
4. संगीतात्मकता है।
5. राजस्थानी मिश्रित ब्रजभाषा है।
6. भक्ति रस की अभिव्यक्ति हुई है।
7. ‘बावरी’ शब्द से बिंब उभरता है।
04
दरस बिन दूखण लागे नैन।
जबसे तुम बिछुड़े प्रभु मोरे, कबहुं न पायो चैन।
सबद सुणत मेरी छतियां, कांपै मीठे लागै बैन।
बिरह व्यथा कांसू कहूं सजनी, बह गई करवत ऐन।
कल न परत पल हरि मग जोवत, भई छमासी रैन।
मीरा के प्रभु कब रे मिलोगे, दुख मेटण सुख देन।
साँवरे के दर्शन बिना मेरे नेत्र अत्यधिक दुखी हैं । हे स्वामी
जब से तुम्हारा वियोग हुआ, तब से आज तक मैं कभी शान्ति नहीं पा सकी । कोयल, पपीहा आदि
पक्षियों के मीठे शब्द सुनते ही मेरा हृदय काँप उठता है और बैन आदि के कठोर शब्द
मुझे मीठे लगते हैं । गोविन्द के विरह में तड़पती रहती हूँ, इसलिये रात को
सो नहीं पाती, करवट लेते-लेते मेरा सारा सुख चला गया । हे सखी ! अब इस
विरह-व्यथा को मैं किससे कहूँ? मुझे चैन नहीं मिलता, निरन्तर श्रीहरि के आने की बाट देखती
रहती हूँ । रात मेरे लिए छः महीने के बराबर हो गयी है । मीरा जी कहती हैं – हे
स्वामी ! तुम दुःख मिटाने वाले और आनन्द दाता हो, मुझे कब तुम्हारे दर्शन होंगे? कब मुझे आकर
मिलोगे?
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