Friday, September 18, 2020

सुमित्रानन्दन पन्त

  

नाम सुमित्रानन्दन पन्त

जन्म 1900 ई. में कौसानी, कुमाऊँ (कूर्मांचल)

पिता का नाम पण्डित गंगादत्त पन्त

माता का नाम श्रीमती सरस्वती देवी

शिक्षा कौसानी के वर्नाक्यूलर स्कूल से प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त कर अल्मोडा के गवर्नमेण्ट ।हाईस्कूल में प्रवेश, तत्पश्चात् बनारस सेहाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की तथा ।स्वाध्याय से ही अंग्रेजी, संस्कृत और बांग्लासाहित्य का गहन अध्ययन किया।

कृतियाँ काव्य रचनाएँ वीणा, उच्छ्वास, पल्लव,गुंजन, ग्रन्थि, युगान्त, युगवाणी, ग्राम्या, स्वर्ण-किरण, युगान्तर, उत्तरा, चिदम्बरा, कला और बूढ़ा चाँद, लोकायतन आदि। गीति-नाट्य ज्योत्स्ना, रजत शिखर, अतिमा। उपन्यास हार। कहानी संग्रह पाँच कहानियाँ।

उपलब्धियाँ “कला एवं बूढ़ा चाँद पर साहित्य अकादमी पुरस्कार, ‘लोकायतन’ पर सोवियत पुरस्कार, “चिदम्बरा’ पर भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार तथा 1961 ई. पद्मभूषण से सम्मानित।

मृत्यु 1977 ई.

सुमित्रानन्दन पन्त जीवन परिचय एवं साहित्यिक उपलब्धियाँ

प्रकृति की सुकुमार भावनाओं के कवि सुमित्रानन्दन पन्त का जन्म हिमालय के सुरम्य प्रदेश कूर्मांचल (कुमाऊँ) के कौसानी नामक ग्राम में 20 मई, 1900 को हुआ था। इनके पिता का नाम पण्डित गंगादत्त पन्त तथा माता काbनाम श्रीमती सरस्वती देवी था। कौसानी के वर्नाक्यूलर स्कूल से प्रारम्भिकbशिक्षा पूर्ण कर ये उच्च विद्यालय में अध्ययन के लिए अल्मोड़ा के राजकीय हाईस्कूल में प्रविष्ट हुए। यहीं पर इन्होंने अपना नाम गसाईं दत्त से बदलकर

सुमित्रानन्दन पन्त रखा। 1919 ई. में बनारस आगमन के पश्चात् यहीं से हाईस्कूल की परीक्षा उतीर्ण की। उसके बाद इलाहाबाद के ‘म्योर सेण्ट्रल कॉलेज में प्रवेश लेने के पश्चात् गाँधीजी के आह्वान पर इन्होंने कॉलेज छोड़ दिया, फिर स्वाध्याय से ही अंग्रेजी, संस्कृत और बांग्ला साहित्य का गहन अध्ययन किया। उपनिषद्, दर्शन तथा आध्यात्मिक साहित्य की ओर उनकी रुचि प्रारम्भ से ही थी। पण्डित शिवाधार पाण्डेय ने इन्हें अत्यधिक प्रेरित किया।

इलाहाबाद (प्रयाग) वापस आकर ‘रुपाभा’ पत्रिका का प्रकाशन करने लगे। बीच में प्रसिद्ध नर्तक उदयशंकर के सम्पर्क में आए और फिर इनका परिचय अरविन्द घोष से हुआ। इनके दर्शन से प्रभावित पन्त जी ने अनेक काव्य संकलन ‘स्वर्ण किरण’, ‘स्वर्ण धूलि’, ‘उत्तरा’ आदि प्रकाशित किए। 1950 ई. में ये आकाशवाणी में हिन्दी चीफ प्रोड्यूसर और फिर साहित्य सलाहकार के पद पर नियुक्त हुए। 1961 ई. में इन्हें पद्मभूषण सम्मान, ‘कला एवं बूढ़ा चाँद’ पर साहित्य अकादमी पुरस्कार, ‘लोकायतन’ पर सोवियत भूमि पुरस्कार तथा ‘चिदम्बरा’ पर भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान किया गया। 28 दिसम्बर, 1977 को प्रकृति के सुकुमार कवि पन्त जी प्रकृति की गोद में ही विलीन हो गए।


साहित्यिक गतिविधियाँ

छायावादी युग के प्रतिनिधि कवि सुमित्रानन्दन पन्त ने सात वर्ष की आयु में ही कविता लेखन प्रारम्भ कर दिया था। इनकी प्रथम रचना 1916 ई. में आई, उसके बाद इनकी काव्य के प्रति रुचि और बढ़ गई। पन्त जी के काव्य में कोमल एवं मृदुल भावों की अभिव्यक्ति होने के कारण इन्हें ‘प्रकृति का सुकुमार कवि’ कहा जाता है।


कृतियाँ

इनकी निम्नलिखित रचनाएँ उल्लेखनीय हैं

काव्य रचनाएँ वीणा (1919), उच्छ्वास (1919), ग्रन्थि (1920), पल्लव । (1926), गुंजन (1932), युगान्त (1937), युगवाणी (1938), ग्राम्या (1940), स्वर्ण-किरण (1947), युगान्तर (1948), उत्तरा (1949), चिदम्बरा (1958), कला और बूढ़ा चाँद (1959), लोकायतन आदि। गीति-नाट्य ज्योत्स्ना, रजत शिखर, अतिमा (1955) उपन्यास हार (1960) कहानी संग्रह पाँच कहानियाँ (1988)


काव्यगत विशेषताएँ

भाव पक्ष


सौन्दर्य के कवि सौन्दर्य के उपासक पन्त की सौन्दर्यानभति के तीन मुख्य केन्द्र-प्रकृति, नारी एवं कला हैं। उनका सौन्दर्य प्रेमी मन प्रकृति को देखकर विभोर हो उठता है। वीणा, ग्रन्थि, पल्लव आदि प्रारम्भिक कृतियों में प्रकृति का कोमल रूप परिलक्षित हुआ है। आगे चलकर ‘गंजन’ आदि काव्य रचनाओं में कविवर पन्त का प्रकृति-प्रेम मांसल बन जाता है और नारी सौन्दर्य का चित्रण करने लगता है। ‘पल्लव’ एवं ‘गुंजन’ में प्रकृति और नारी मिलकर एक हो गए हैं।

कल्पना के विविध रूप व्यक्तिवादी कलाकार के समान अन्तर्मखी बनकर अपनी कल्पना को असीम गगन में खुलकर विचरण करने देते हैं।

रस चित्रण पन्त जी का प्रिय रस शृंगार है, परन्तु उनके काव्य में | शान्त, अद्भुत, करुण, रोद्र आदि रसों का भी सुन्दर परिपाक हआ है।

कला पक्ष

भाषा पन्त जी की भाषा चित्रात्मक है। साथ ही उसमें संगीतात्मकता के गुण भी मौजूद हैं। उन्होंने कविता की भाषा एवं भावों में पूर्ण सामंजस्य पर बल दिया है। उनकी प्रकृति सम्बन्धी कविताओं में चित्रात्मकता अपनीbचरम सीमा पर दिखाई देती है। कोमलकान्त पदावली से युक्त सहज खड़ीबोली में पद-लालित्य का गुण विद्यमान है। उन्होंने अनेक नए शब्दों का निर्माण भी किया; जैसे-टलमल, रलमल आदि। उनकी भाषा संस्कृतनिष्ठ एवं परिमार्जित है, जिसमें एक सहज प्रवाह एवं अलंकृति देखने को मिलती है।

शैली पन्त जी की शैली में छायावादी काव्य-शैली की समस्त विशेषताएँ; जैसे-लाक्षणिकता, प्रतीकात्मकता, ध्वन्यात्मकता, चित्रात्मकता, सजीव एवं मनोरम बिम्ब-विधान आदि पर्याप्त रूप से मौजूद हैं।

अलंकार एवं छन्द पन्त जी को उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, अन्योक्ति जैसे अलंकार विशेष प्रिय थे। वे उपमाओं की लड़ी बाँधने में अत्यन्त सक्षम थे। उन्होंने मानवीकरण एवं ध्वन्यर्थ-व्यंजना जैसे पाश्चात्य अलंकारों के भी प्रयोग किए। इन्होंने नवीन छन्दों का प्रयोग किया। मुक्तक छन्दों का विरोध किया, क्योंकि वे उसकी अपेक्षा तुकान्त छन्दों को अधिक सक्षम मानते थे। उन्होंने छन्द के बन्धनों का विरोध किया।

हिन्दी साहित्य में स्थान

सुमित्रानन्दन पन्त के काव्य में कल्पना एवं भावों की सकमार कोमलता के दर्शन होते हैं। पन्त जी सौन्दर्य के उपासक थे। वे युगद्रष्टा व युगस्रष्टा दोनों ही थे। व असाधारण प्रतिभा सम्पन्न साहित्यकार थे। छायावाद के युग प्रवर्तक कवि के रूप

में उनकी सेवाओं को सदा याद किया जाता रहेगा।


BAAPU KE PRATI 


तुम मांस-हीन, तुम रक्तहीन,

हे अस्थि-शेष! तुम अस्थिहीन,

तुम शुद्ध-बुद्ध आत्मा केवल,

हे चिर पुराण, हे चिर नवीन!

तुम पूर्ण इकाई जीवन की,

जिसमें असार भव-शून्य लीन;

आधार अमर, होगी जिस पर

भावी की संस्कृति समासीन!

तुम मांस, तुम्ही हो रक्त-अस्थि,

निर्मित जिनसे नवयुग का तन,

तुम धन्य! तुम्हारा नि:स्व-त्याग

है विश्व-भोग का वर साधन।

इस भस्म-काम तन की रज से

जग पूर्ण-काम नव जग-जीवन

बीनेगा सत्य-अहिंसा के

ताने-बानों से मानवपन!

सदियों का दैन्य-तमिस्र तूम,

धुन तुमने कात प्रकाश-सूत,

हे नग्न! नग्न-पशुता ढँक दी

बुन नव संस्कृत मनुजत्व पूत।

जग पीड़ित छूतों से प्रभूत,

छू अमित स्पर्श से, हे अछूत!

तुमने पावन कर, मुक्त किए

मृत संस्कृतियों के विकृत भूत!

सुख-भोग खोजने आते सब,

आये तुम करने सत्य खोज,

जग की मिट्टी के पुतले जन,

तुम आत्मा के, मन के मनोज!

जड़ता, हिंसा, स्पर्धा में भर

चेतना, अहिंसा, नम्र-ओज,

पशुता का पंकज बना दिया

तुमने मानवता का सरोज!

पशु-बल की कारा से जग को

दिखलाई आत्मा की विमुक्ति,

विद्वेष, घृणा से लड़ने को

सिखलाई दुर्जय प्रेम-युक्ति;

वर श्रम-प्रसूति से की कृतार्थ

तुमने विचार-परिणीत उक्ति,

विश्वानुरक्त हे अनासक्त!

सर्वस्व-त्याग को बना भुक्ति!

सहयोग सिखा शासित-जन को

शासन का दुर्वह हरा भार,

होकर निरस्त्र, सत्याग्रह से

रोका मिथ्या का बल-प्रहार:

बहु भेद-विग्रहों में खोई

ली जीर्ण जाति क्षय से उबार,

तुमने प्रकाश को कह प्रकाश,

औ अन्धकार को अन्धकार।

उर के चरखे में कात सूक्ष्म

युग-युग का विषय-जनित विषाद,

गुंजित कर दिया गगन जग का

भर तुमने आत्मा का निनाद।

रंग-रंग खद्दर के सूत्रों में

नव-जीवन-आशा, स्पृह्यालाद,

मानवी-कला के सूत्रधार!

हर लिया यन्त्र-कौशल-प्रवाद।

जड़वाद जर्जरित जग में तुम

अवतरित हुए आत्मा महान,

यन्त्राभिभूत जग में करने

मानव-जीवन का परित्राण;

बहु छाया-बिम्बों में खोया

पाने व्यक्तित्व प्रकाशवान,

फिर रक्त-माँस प्रतिमाओं में

फूँकने सत्य से अमर प्राण!

संसार छोड़ कर ग्रहण किया

नर-जीवन का परमार्थ-सार,

अपवाद बने, मानवता के

ध्रुव नियमों का करने प्रचार;

हो सार्वजनिकता जयी, अजित!

तुमने निजत्व निज दिया हार,

लौकिकता को जीवित रखने

तुम हुए अलौकिक, हे उदार!

मंगल-शशि-लोलुप मानव थे

विस्मित ब्रह्मांड-परिधि विलोक,

तुम केन्द्र खोजने आये तब

सब में व्यापक, गत राग-शोक;

पशु-पक्षी-पुष्पों से प्रेरित

उद्दाम-काम जन-क्रान्ति रोक,

जीवन-इच्छा को आत्मा के

वश में रख, शासित किए लोक।

था व्याप्त दिशावधि ध्वान्त भ्रान्त

इतिहास विश्व-उद्भव प्रमाण,

बहु-हेतु, बुद्धि, जड़ वस्तु-वाद

मानव-संस्कृति के बने प्राण;

थे राष्ट्र, अर्थ, जन, साम्य-वाद

छल सभ्य-जगत के शिष्ट-मान,

भू पर रहते थे मनुज नहीं,

बहु रूढि-रीति प्रेतों-समान--

तुम विश्व मंच पर हुए उदित

बन जग-जीवन के सूत्रधार,

पट पर पट उठा दिए मन से

कर नव चरित्र का नवोद्धार;

आत्मा को विषयाधार बना,

दिशि-पल के दृश्यों को सँवार,

गा-गा--एकोहं बहु स्याम,

हर लिए भेद, भव-भीति-भार!

एकता इष्ट निर्देश किया,

जग खोज रहा था जब समता,

अन्तर-शासन चिर राम-राज्य,

औ’ वाह्य, आत्महन-अक्षमता;

हों कर्म-निरत जन, राग-विरत,

रति-विरति-व्यतिक्रम भ्रम-ममता,

प्रतिक्रिया-क्रिया साधन-अवयव,

है सत्य सिद्ध, गति-यति-क्षमता।

ये राज्य, प्रजा, जन, साम्य-तन्त्र

शासन-चालन के कृतक यान,

मानस, मानुषी, विकास-शास्त्र

हैं तुलनात्मक, सापेक्ष ज्ञान;

भौतिक विज्ञानों की प्रसूति

जीवन-उपकरण-चयन-प्रधान,

मथ सूक्ष्म-स्थूल जग, बोले तुम--

मानव मानवता का विधान!

साम्राज्यवाद था कंस, बन्दिनी

मानवता पशु-बलाक्रान्त,

श्रृंखला दासता, प्रहरी बहु

निर्मम शासन-पद शक्ति-भ्रान्त;

कारा-गृह में दे दिव्य जन्म

मानव-आत्मा को मुक्त, कान्त,

जन-शोषण की बढ़ती यमुना

तुमने की नत-पद-प्रणत, शान्त!

कारा थी संस्कृति विगत, भित्ति

बहु धर्म-जाति-गत रूप-नाम,

बन्दी जग-जीवन, भू-विभक्त,

विज्ञान-मूढ़ जन प्रकृति-काम;

आए तुम मुक्त पुरुष, कहने--

मिथ्या जड़-बन्धन, सत्य राम,

नानृतं जयति सत्यं, मा भैः

जय ज्ञान-ज्योति, तुमको प्रणाम!


रचनाकाल: अप्रैल’१९३६


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