कव्वाली के जनक दक्षिण एशिया में अमीर खुसरो रहे । सूफ़ी परंपरा की "समा ए मफिल" कौल से रस्क की राह पर चलते हुए हिन्दुस्तानी खानकाहों तक पहुंची । चिस्तिया सिलसिले में लगातार आगे बढ़ी और फैलती गई । तेरहवीं शताब्दी से लेकर वर्तमान की व्यावसायिक व धर्मनिरपेक्ष छवि वाली कव्वाली अपने अंदर भारतीय समाज व संस्कृति के बहुत से रंग समेटे हुए है ।
खानकाहों से जुड़े कव्वाल घराने, "कव्वाल के बच्चे" से लेकर कव्वाली गाने वाले सामान्य गायकों की सामाजिक और व्यावसायिक हैसियत में भी बहुत अंतर है । U
फ्यूजन के बादशाह नुसरत फतेह अली खान ने कव्वाली को पूरी दुनियां में लोकप्रिय बनाया । भारत में कव्वाली कई भारतीय भाषाओं में गायी जा रही है । पवित्र स्थलों, उर्स इत्यादि के अतरिक्त सिर्फ़ व्यावसायिक उद्देश्य से भी बाकायदा टिकट लगाकर कव्वाली के बड़े बड़े आयोजन किए जा रहे हैं ।
कव्वाली में अब सिर्फ़ डफली, ढोलक और हारमोनियम ही नहीं बल्कि आवश्यकता के अनुरूप हर तरह के वाद्य यंत्रों का उपयोग धड़ल्ले से हो रहा है । महिला कव्वालों ने पुरुषों के वर्चस्व वाले इस क्षेत्र में अपनी उपस्थिति का एहसास कराना शुरू कर दिया है । हराम और हलाल की तमाम बहसों व तर्कों से आगे निकलते हुए कव्वाली अल्लाह के कौल को काव्य और संगीत की साधना से आगे बढ़ा रही है ।
सूफियों का वह संदेश कि - "वह सब का है और सब को उसकी रहमत का हक है ।" को कव्वाली ने सही मायनों में आत्मसाथ किया है । कव्वाली पर भारतीयता की बहुत ही स्पष्ट और गहरी छाप है । सूफ़ी संतों और पीरों ने अरबी, फ़ारसी और तुर्की की जगह स्थानीय भाषाओं को अपने संदेश का आधार बनाया । परिणाम स्वरूप हिंदी और उर्दू जैसी भाषाओं को फलने फूलने का अवसर मिला । भक्तिकाल के कवियों ने भी यही रास्ता अपनाते हुए अवधी और बृज में पद लिखे और गाए । कबीर जैसे कवियों ने इसी भाव के साथ सधुक्कड़ी भाषा को आत्मसाथ किया । मीरा ने गुजराती और हिंदी दोनों ही भाषाओं में पद लिखे ।
भारतीय संदर्भों में कव्वाली पर गंभीर अकादमिक कार्य की बहुत गुंजाइश है ।
खानकाहों से जुड़े कव्वाल घराने, "कव्वाल के बच्चे" से लेकर कव्वाली गाने वाले सामान्य गायकों की सामाजिक और व्यावसायिक हैसियत में भी बहुत अंतर है । U
फ्यूजन के बादशाह नुसरत फतेह अली खान ने कव्वाली को पूरी दुनियां में लोकप्रिय बनाया । भारत में कव्वाली कई भारतीय भाषाओं में गायी जा रही है । पवित्र स्थलों, उर्स इत्यादि के अतरिक्त सिर्फ़ व्यावसायिक उद्देश्य से भी बाकायदा टिकट लगाकर कव्वाली के बड़े बड़े आयोजन किए जा रहे हैं ।
कव्वाली में अब सिर्फ़ डफली, ढोलक और हारमोनियम ही नहीं बल्कि आवश्यकता के अनुरूप हर तरह के वाद्य यंत्रों का उपयोग धड़ल्ले से हो रहा है । महिला कव्वालों ने पुरुषों के वर्चस्व वाले इस क्षेत्र में अपनी उपस्थिति का एहसास कराना शुरू कर दिया है । हराम और हलाल की तमाम बहसों व तर्कों से आगे निकलते हुए कव्वाली अल्लाह के कौल को काव्य और संगीत की साधना से आगे बढ़ा रही है ।
सूफियों का वह संदेश कि - "वह सब का है और सब को उसकी रहमत का हक है ।" को कव्वाली ने सही मायनों में आत्मसाथ किया है । कव्वाली पर भारतीयता की बहुत ही स्पष्ट और गहरी छाप है । सूफ़ी संतों और पीरों ने अरबी, फ़ारसी और तुर्की की जगह स्थानीय भाषाओं को अपने संदेश का आधार बनाया । परिणाम स्वरूप हिंदी और उर्दू जैसी भाषाओं को फलने फूलने का अवसर मिला । भक्तिकाल के कवियों ने भी यही रास्ता अपनाते हुए अवधी और बृज में पद लिखे और गाए । कबीर जैसे कवियों ने इसी भाव के साथ सधुक्कड़ी भाषा को आत्मसाथ किया । मीरा ने गुजराती और हिंदी दोनों ही भाषाओं में पद लिखे ।
भारतीय संदर्भों में कव्वाली पर गंभीर अकादमिक कार्य की बहुत गुंजाइश है ।
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