Thursday, July 20, 2017

‘सिंदूर तिलकित भाल’ / नागार्जुन (30 जून 1911 – 5 नवंबर 1998)




‘सिंदूर तिलकित भाल’
घोर निर्जन में परिस्थिति ने दिया है डाल!
याद आता है तुम्हारा सिंदूर तिलकित भाल!
कौन है वह व्यक्ति जिसको चाहिए न समाज?
कौन है वह एक जिसको नहीं पड़ता दूसरे से काज?
चाहिए किसको नहीं सहयोग?
चाहिए किसको नही सहवास?
कौन चाहेगा कि उसका शून्य में टकराए यह उच्छवास?
हो गया हूं मैं नहीं पाषाण 
जिसको डाल दे कोई कहीं भी 
करेगा वह कभी कुछ न विरोध 
करेगा वह कुछ नहीं अनुरोध 
वेदना ही नहीं उसके पास 
फिर उठेगा कहां से नि:श्वास 
मैं न साधारण, सचेतन जंतु 
यहां हां-ना-किंतु और परंतु 
यहां हर्ष-विषाद-चिंता-क्रोध 
यहां है सुख-दुःख का अवबोध 
यहां है प्रत्यक्ष औ’ अनुमान 
यहां स्मृति-विस्मृति के सभी के स्थान 
तभी तो तुम याद आतीं प्राण, 
हो गया हूं मैं नहीं पाषाण!
याद आते स्वजन
जिनकी स्नेह से भींगी अमृतमय आंख
स्मृति-विहंगम की कभी थकने न देगी पांख
याद आता है मुझे अपना वह ‘तरउनी’ ग्राम
याद आतीं लीचियां, वे आम
याद आते मुझे मिथिला के रुचिर भू-भाग
याद आते धान
याद आते कमल, कुमुदिनी और तालमखान
याद आते शस्य-श्यामल जनपदों के
रूप-गुण-अनुसार ही रक्खे गए वे नाम
याद आते वेणुवन वे नीलिमा के निलय, अति अभिराम
धन्य वे जिनके मृदुलतम अंक
हुए थे मेरे लिए पर्यंक
धन्य वे जिनकी उपज के भाग
अन्य-पानी और भाजी-साग
फूल-फल औ’ कंद-मूल, अनेक विध मधु-मांस
विपुल उनका ऋण, सधा सकता न मैं दशमांश
ओह! यद्यपि पड़ गया हूं दूर उनसे आज 
हृदय से पर आ रही आवाज, 
धन्य वे जन्य, वही धन्य समाज 
यहां भी तो हूं न मैं असहाय 
यहां भी व्यक्ति औ’ समुदाय 
किंतु जीवन भर रहूं फिर भी प्रवासी ही कहेंगे हाय!
मरूंगा तो चिता पर दो फूल देंगे डाल 
समय चलता जाएगा निर्बाध अपनी चाल
सुनोगी तुम तो उठेगी हूक
मैं रहूंगा सामने (तस्वीर मैं) पर मूक
सांध्य नभ में पश्चिमांत-समान
लालिमा का जब करुण आख्यान
सुना करता हूं, सुमुखि उस काल
याद आता तुम्हारा सिंदूर तिलकित भाल





















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