मैथिलीशरण गुप्त
जन्म : सन १८८५ ई.मैथिलीशरण गुप्त खड़ी बोली कविता के प्रथम महत्त्वपूर्ण कवि हैं।श्री महावीर प्रसाद द्विवेदी की प्रेरणा से उन्होंने खड़ी-बोली को अपनी रचनाओं द्वारा एक काव्य-भाषा के रूप में निर्मित करने में अथक प्रयास किया और इस तरह ब्रजभाषा-जैसी समृद्ध काव्य-भाषा को छोड़कर समय और संदर्भों के अनुकूल होने के कारण नये कवियों ने इसे ही अपनी काव्य-अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। हिन्दी कविता के इतिहास में गुप्त जी का यह सबसे बड़ा योगदान है।
पवित्रता, नैतिकता और परंपरागत मानवीय संबंधों की रक्षा गुप्त जी के काव्य के प्रथम गुण हैं, जो पंचवटी से लेकर 'जयद्रथ वध', 'यशोधरा' और 'साकेत' तक में प्रतिष्ठित एवं प्रतिफलित हुए हैं।'साकेत' उनकी रचना का सर्वोच्च शिखर है।
मृत्यु : सन १९६४ ई.
हिन्दी के कवि
मैथिलीशरण गुप्त
(1886-1964 ई.)
साहित्य जगत में 'दद्दा नाम से प्रसिध्द राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त का जन्म झांसी के चिरगांव ग्राम में हुआ। इनकी शिक्षा घर पर ही हुई। ये भारतीय संस्कृति एवं वैष्णव परंपरा के प्रतिनिधि कवि हैं, जिन्होंने पचास वर्षों तक निरंतर काव्य सर्जना की। लगभग 40 ग्रंथ रचे तथा खडी बोली को सरल, प्रवाहमय और सशक्त बनाया। इनकी मुख्य काव्य-कृतियां हैं- 'भारत-भारती, 'साकेत, 'यशोधरा, 'कुणाल-गीत, 'जयद्रथ-वध, 'द्वापर, 'पंचवटी तथा 'जय भारत। 'साकेत पर इन्हें 'मंगला प्रसाद पारितोषिक मिला था। ये 'पद्म-भूषण के अलंकरण से सम्मानित हुए। 1952 से 1964 तक ये राज्यसभा के मनोनीत सदस्य भी रहे।
मातृभूमि
नीलाम्बर परिधान हरित पट पर सुंदर हैं,
सूर्य चंद्र युग मुकुट, मेखला रत्नाकर हैं।
नदियां प्रेम-प्रवाह, फूल तारे मंडल हैं,
बंदीजन खग-वृंद शेष-फन सिंहासन हैं।
करते अभिषेक पयोद हैं, बलिहारी इस वेष की,
हे मातृभूमि, तू सत्य ही सगुण मूर्ति सर्वेश की।
जिसकी रज में लोट-लोटकर बडे हुए हैं,
घुटनों के बल सरक-सरक कर खडे हुए हैं।
परमहंस-सम बाल्यकाल में सब सुख पाए,
जिसके कारण 'धूलि भरे हीरे कहलाए।
हम खेले-कूदे हर्षयुत जिसकी प्यारी गोद में,
हे मातृभूमि, तुझको निरख मग्न क्यों न हों मोद में?
पाकर तुझसे सभी सुखों को हमने भोगा,
तेरा प्रत्युपकार कभी क्या हमसे होगा?
तेरी ही यह देह, तुझी से बनी हुई है,
बस, तेरे ही सुरस-सार से सनी हुई है।
फिर अंत समय तू ही इसे, अचल देख अपनायगी,
हे मातृभूमि, यह अंत में, तुझमें ही मिल जाएगी।
क्षमामयी, तू दयामयी है, क्षेममयी है,
सुधामयी, वात्सल्यमयी, तू प्रेममयी है।
विभवशालिनी, विश्वपालिनी, दुखहर्त्री है,
भय-निवारिणी, शांतिकारिणी, सुखकर्त्री है।
हे शरणदायिनी देवि तू, करती सबका त्राण है,
हे मातृभूमि, संतान हम, तू जननी, तू प्राण है।
जिस पृथिवी में मिले हमारे पूर्वज प्यारे,
उससे हे भगवान्! कभी हम रहें न न्यारे।
लोट-लोटकर वहीं हृदय को शांत करेंगे,
उसमें मिलते समय मृत्यु से नहीं डरेंगे।
उस मातृभूमि की धूलि में जब पूरे सन जायंगे,
होकर भाव-बंधन-मुक्त हम आत्मरूप बन जायंगे।
सूर्य चंद्र युग मुकुट, मेखला रत्नाकर हैं।
नदियां प्रेम-प्रवाह, फूल तारे मंडल हैं,
बंदीजन खग-वृंद शेष-फन सिंहासन हैं।
करते अभिषेक पयोद हैं, बलिहारी इस वेष की,
हे मातृभूमि, तू सत्य ही सगुण मूर्ति सर्वेश की।
जिसकी रज में लोट-लोटकर बडे हुए हैं,
घुटनों के बल सरक-सरक कर खडे हुए हैं।
परमहंस-सम बाल्यकाल में सब सुख पाए,
जिसके कारण 'धूलि भरे हीरे कहलाए।
हम खेले-कूदे हर्षयुत जिसकी प्यारी गोद में,
हे मातृभूमि, तुझको निरख मग्न क्यों न हों मोद में?
पाकर तुझसे सभी सुखों को हमने भोगा,
तेरा प्रत्युपकार कभी क्या हमसे होगा?
तेरी ही यह देह, तुझी से बनी हुई है,
बस, तेरे ही सुरस-सार से सनी हुई है।
फिर अंत समय तू ही इसे, अचल देख अपनायगी,
हे मातृभूमि, यह अंत में, तुझमें ही मिल जाएगी।
क्षमामयी, तू दयामयी है, क्षेममयी है,
सुधामयी, वात्सल्यमयी, तू प्रेममयी है।
विभवशालिनी, विश्वपालिनी, दुखहर्त्री है,
भय-निवारिणी, शांतिकारिणी, सुखकर्त्री है।
हे शरणदायिनी देवि तू, करती सबका त्राण है,
हे मातृभूमि, संतान हम, तू जननी, तू प्राण है।
जिस पृथिवी में मिले हमारे पूर्वज प्यारे,
उससे हे भगवान्! कभी हम रहें न न्यारे।
लोट-लोटकर वहीं हृदय को शांत करेंगे,
उसमें मिलते समय मृत्यु से नहीं डरेंगे।
उस मातृभूमि की धूलि में जब पूरे सन जायंगे,
होकर भाव-बंधन-मुक्त हम आत्मरूप बन जायंगे।
रात्रि वर्णन
चारु चंद्र की चंचल किरणें
खेल रही हैं जल-थल में,
स्वच्छ चांदनी बिछी हुई है
अवनि और अंबर तल में।
पुलक प्रगट करती है धरती
हरित तृणों की नोकों से,
मानो झूम रहे हैं तरु भी
मंद पवन के झोंकों से॥
क्या ही स्वच्छ चांदनी है यह
है क्या ही निस्तब्ध निशा,
है स्वच्छंद-सुमंद गंध वह,
निरानंद है कौन दिशा?
बंद नहीं, अब भी चलते हैं
नियति-नटी के कार्य-कलाप,
पर कितने एकांत भाव से,
कितने शांत और चुपचाप॥
है बिखेर देती वसुंधरा
मोती, सबके सोने पर,
रवि बटोर लेता है उनको
सदा सबेरा होने पर।
और विरामदायिनी अपनी
संध्या को दे जाता है,
शून्य श्याम तनु जिससे उसका-
नया रूप छलकाता है॥
पंचवटी की छाया में है
सुंदर पर्ण कुटीर बना,
उसके सम्मुख स्वच्छ शिला पर
धीर वीर निर्भीक-मना,
जाग रहा यह कौन धनुर्धर,
जबकि भुवन भर सोता है?
भोगी कुसुमायुध योगी सा
बना दृष्टिगत होता है।
खेल रही हैं जल-थल में,
स्वच्छ चांदनी बिछी हुई है
अवनि और अंबर तल में।
पुलक प्रगट करती है धरती
हरित तृणों की नोकों से,
मानो झूम रहे हैं तरु भी
मंद पवन के झोंकों से॥
क्या ही स्वच्छ चांदनी है यह
है क्या ही निस्तब्ध निशा,
है स्वच्छंद-सुमंद गंध वह,
निरानंद है कौन दिशा?
बंद नहीं, अब भी चलते हैं
नियति-नटी के कार्य-कलाप,
पर कितने एकांत भाव से,
कितने शांत और चुपचाप॥
है बिखेर देती वसुंधरा
मोती, सबके सोने पर,
रवि बटोर लेता है उनको
सदा सबेरा होने पर।
और विरामदायिनी अपनी
संध्या को दे जाता है,
शून्य श्याम तनु जिससे उसका-
नया रूप छलकाता है॥
पंचवटी की छाया में है
सुंदर पर्ण कुटीर बना,
उसके सम्मुख स्वच्छ शिला पर
धीर वीर निर्भीक-मना,
जाग रहा यह कौन धनुर्धर,
जबकि भुवन भर सोता है?
भोगी कुसुमायुध योगी सा
बना दृष्टिगत होता है।
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के मार्गदर्शन में जिन कवियों ने ब्रज-भाषा के स्थान पर खड़ी बोली हिन्दी को अपनी काव्य-भाषा बनाकर उसकी क्षमता से विश्व को परिचित कराया, उनमें श्रद्धेय मैथिलीशरण गुप्त का नाम सबसे प्रमुख है। उनकी काव्य-प्रतिभा का सम्मान करते हुये साहित्य-जगत उन्हें राष्ट्रकवि के रूप में याद करता रहा है।
मैथिली जी का जन्म झाँसी के समीप चिरगाँव में 3 अगस्त, 1886 को हुआ। बचपन में स्कूल जाने में रूचि न होने के कारण इनके पिता सेठ रामचरण गुप्त ने इनकी शिक्षा का प्रबंध घर पर ही किया था और इसी तरह उन्होंने संस्कृत, अंग्रेज़ी और बांग्ला का ज्ञान प्राप्त किया। काव्य-लेखन की शुरुआत उन्होंने पत्र-पत्रिकाओं में अपनी कवितायें प्रकाशित कर की। इन्हीं पत्रिकाओं में से एक ’सरस्वती’ आचार्य द्विवेदी के संपादन में निकलती थी। युवक मैथिली ने आचार्य की प्रेरणा से खड़ी बोली में लिखना शुरू किया। 1910 में उनकी पहला प्रबंधकाव्य ’रंग में भंग’ प्रकाशित हुआ। ’भारत-भारती’ के प्रकाशन के साथ ही वे एक लोकप्रिय कवि के रूप में स्थापित हो गये।
मैथिली जी की रूचि ऐतिहासिक और पौराणिक कथानकों पर आधारित प्रबंधकाव्य लिखने में अधिक थी और उन्होंने रामायण, महाभारत, बुद्ध-चरित आदि पर आधारित बड़ी सुंदर रचनायें लिखीं हैं। रामायण पर आधारित ’साकेत’ शायद उनकी सबसे प्रसिद्ध और कालजयी कृति है। इसमें उन्होंने रामायण की कथा को तत्कालीन अयोध्या में बैठे किसी व्यक्ति की तरह वर्णित किया है। पर इसकी प्रसिद्धि का सबसे सशक्त आधार है; पूरे प्रबंधकाव्य के दो सर्गों में वर्णित लक्ष्मण-पत्नी उर्मिला का वियोग वर्णन। रामायण में उपेक्षित रह गई उर्मिला को गुप्त जी ने जैसे अपने हृदय का सारा स्नेह प्रदान कर दिया है। इसी प्रकार ’यशोधरा’ में गौतम बुद्ध के घर छोड़ने के बाद यशोधरा की अवस्था का बड़ा ही मार्मिक चित्रण गुप्त जी ने किया है। इन दोनों ही रचनाओं के वियोग वर्णन की खासियत यह है कि इसमें उर्मिला और यशोधरा के माध्यम से आधुनिक नारी-विमर्श को भी स्वर दिया गया है।
वेदने, तू भी भली बनी।
पाई मैंने आज तुझी में अपनी चाह घनी।
नई किरण छोडी है तूने, तू वह हीर-कनी,
सजग रहूँ मैं, साल हृदय में, ओ प्रिय विशिख-अनी।
ठंडी होगी देह न मेरी, रहे दृगम्बु सनी,
तू ही उष्ण उसे रखेगी मेरी तपन-मनी। (साकेत)
सखि, वे मुझसे कहकर जाते,
कह, तो क्या मुझको वे अपनी पथ-बाधा ही पाते?
मुझको बहुत उन्होंने माना
फिर भी क्या पूरा पहचाना?
मैंने मुख्य उसी को जाना
जो वे मन में लाते।
सखि, वे मुझसे कहकर जाते। (यशोधरा)
नारी-सशक्तिकरण के अलावा गुप्त जी की रचनाओं में भारतीय संस्कृति के उत्थान और जन-जागरण का स्वर प्रमुखत: ध्वनित होता है। ’भारत-भारत’ के अलावा ’किसान’, ’आर्य’, ’मातृभूमि’ और ’जय भारत’ जैसी कविताओं में उनके देश और समाज के प्रति रुझान का स्पष्ट परिचय मिलता है। गुप्त जी की अन्य प्रसिद्ध कृतियाँ हैं - जयद्रथ-वध, पंचवटी, वैतालिक, काबा-कर्बला, द्वापर, कुणाल (काव्य), तिलोत्तमा और चंद्रहास (नाटक)। इसके अतिरिक्त उन्होंने रुबाइयात उमर खैयाम और संस्कृत नाटक ’स्वप्नवासवद्त्ता’ का अनुवाद भी किया।
हम कौन थे, क्या हो गये हैं, और क्या होंगे अभी
आओ विचारें आज मिल कर, यह समस्याएं सभी
भू लोक का गौरव, प्रकृति का पुण्य लीला स्थल कहां
फैला मनोहर गिरि हिमालय, और गंगाजल कहां
संपूर्ण देशों से अधिक, किस देश का उत्कर्ष है
उसका कि जो ऋषि भूमि है, वह कौन, भारतवर्ष है (आर्य)
मैथिली जी की भाषा निरंतर विकास की ओर अग्रसर होती दिखाई देती है. आरंभिक कविताओं में जहाँ कहीं-कहीं भाषा भावों के साथ तालमेल न बिठा पाने के कारण रूखी जान पड़ती है, वहीं बाद में ’साकेत’ जैसी रचनाओं में वे अत्यंत भावप्रवण भाषा का प्रयोग करते हैं जिसमें कुछ कुछ छायावाद की झलक भी मिलती है। शैली की दृष्टि से देखें तो मैथिली जी की कवितायें द्विवेदी युगीन अन्य कवियों की ही तरह कुछ इतिवृत्तात्मक प्रतीत होतीं हैं।
आज़ादी के बाद उन्हें मानद राज्यसभा सदस्य का पद प्रदान किया गया जिस पर वे 12 दिसंबर, 1964 को अपनी मृत्यु तक रहे।चारु चंद्र की चंचल किरणें,
खेल रहीं थीं जल थल में।
स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई थी,
अवनि और अम्बर तल में।
पुलक प्रकट करती थी धरती,
हरित तृणों की नोकों से।
मानो झूम रहे हों तरु भी,
मन्द पवन के झोंकों से। (पंचवटी)
(यह सभी जानकारी वेब से ली गई है. यह मेरा लिखा हुआ लेख नहीं है )
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