‘‘मुखौटों मे अभिव्यक्ति बनाम अभिव्यक्ति के खतरे’’
(समकालीन कविता के संदर्भ में) डॉ. मनीषकुमार मिश्रा
कविता को ‘छंदमुक्त’करने का जो अभियान आजादी के पहले चलाया गया, और ‘छंद मुक्ति’ को राष्ट्रीय स्वतंत्रता से जोड़ा गया; यह निश्चित रूप में कविता के लिए एक मुख्य प्रस्थान बिन्दु था। लेकिन यहाँ समझने और ध्यान देने वाली बात यह है कि कविता को छंद से मुक्त करना और कविता को छंदहीन बना देने आग्रह करना, दोनो ही बातें अलग हैं। ‘प्रेरणा’ पत्रिका में छपे अपने आलेख ‘‘समकालीन हिन्दी कविता का स्वरूप और संरचना’’ में भगवत रावत लिखते भी हैं कि ‘‘... हिंदी कविता में छंद से मुक्त होने की बात कही गई थी – छंद के निषेध और छन्दहीनता की नहीं। .....कोई भी कविता, अपनी कविता होने की शर्तो को पूरा किये बिना कविता नहीं हो सकती, फिर चाहे वह निरे गद्य दिखते स्वरूप में ही क्यों न हो। ..... छंद की मूल संकल्पना में किसी भी चीज, वस्तु, मनुष्या और प्राणी मात्र की अपनी पहचान ही मुख्य है। हजारी प्रसाद द्विवेदी कहा करते थे कि दूर से आते हुए उस व्यक्ति को जो आपको ठीक से दिख भी नही रहा है, आप उसको पहचान लेते हैं, और कहते हैं हो न हो अमुक चले आ रहे हैं। ऐसा इसलिए होता है कि आप उस व्यक्ति के छंद (चाल-ढाल, वेशभूषा और देह की भंगिमा) को पहचानते हैं।..... तो इसतरह कविता अगर रचना है – तो वह अपना छंद लेकर ही आयेगी।’’ रावत जी को बातों से मैं पूरी तरह सहमत हूँ। निराला, प्रसाद, रघुवीर सहाय, पंत, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, केदारनाथ सिंह, मुक्तिबोध,कुंवर नारायण, श्रीकांत वर्मा, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, कुमार अंबुज, राजेश जोशी, मंगेश डबराल, चंद्रकांत देवताळे, अज्ञेय, शमशेर बहादुर सिंह, त्रिलोचन, अशोक बाजपेयी, विष्णु खरे, भगवत रावत, अशोक सिंह, डॉ. विद्या बिन्दु सिंह, निर्मला पुतुल, अरुण देव, बोधिसत्व, हेमन्त कुकरेती, अशोक चक्रधर, प्रताप राव कदम, बद्रीनाथ नारायण, रामदरश मिश्र, अरिंवदाक्षन, पद्मजा घोरपडे, प्रतिभा मुदिलियार, क्षमा कौल, तेजेन्द्र शर्मा, दिव्या माथुर, डॉ. कृष्णकुमारद्ध प्रो. आदेश, उषा राजे सक्सेना, डॉ. गौतम सचदेव, अनिल जनविजय, डॉ. पुस्पिता, अनामिका, निखिल कौशिक, हेमराज सुंदर, डॉ. सतेन्द्र श्रीवास्तव, पद्मेश गुप्त, राजेंद्र घोडपकर, विष्णु नागर, नवल शुक्ल, संजय श्रीवास्तव, ज्ञानेन्द्र पति, संजय वुंâदन, उदय प्रकाश, देवी प्रसाद मिश्र, एकांत श्रीवास्तव, निलय उपाध्याय, संजय चतुर्वेदी, कात्यायनी, गगन गिल, निलेश रघुवंशी, प्रेमरंजन, अनिमेष, निलेश रघुवंशी, पंकज चतुर्वेदी, सोमदत्त बखौरी, सुंदरचंद ठाकुर, कृष्णकुमार और कमलेश मिश्र तक कविता की पूरी यात्रा इतनी विस्तृत, बहुरंगीय और इतनी धाराओं, उपधाराओं में विभक्त है कि उनका समग्र अध्ययन अपने आप में एक चुनौती है। फिल्मों, गीत-संगीत, उर्दूकवि और इंटरनेट तथा ब्लॉग जैसी आधुनिक तकनीकी विधओं के माध्यम से भी समकालीन हिंदी कविता अपने आप को संपन्न कर रही है। जब बात समकालीन हिंदी कविता की हो तो सबसे मुश्किल काम इसके दायरे को तैय करना हो जाता है।
बात जब समकालीन हिंदी कविता की होती है तो अक्सर यह बात चर्चा के केन्द्र में रहती है कि आखिर कविता दिन-ब-दिन इतनी जटिल और कठिन क्यों होती जा रही है। जबाब में अधिकांश रूप में यह पढने को भी मिलता है कि हम एक ऐसे युग में जी रहे हैं जो बाजारीकरण का युग है, पूँजीवादी व्यवस्था में हम इतने जकड़ गये हैं कि मानवीय संवेदनाएँ नैतिकता के सादे आग्रह तोड़कर जैसे जैसे साँस ले रही है। आज संबंधों के बीच जो अविश्वास है, कुंठा, निराशा औ अवसाद है। जीवन का जो एकाकीपन है, मनुष्य मात्र की जो जटिल से जटिल विन्यास को देखा जा सकता है। इन बातों से मैं व्यक्तिगत तौर पर सहमत इसलिए नहीं हो पाता हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि कविता करना हमेशा से ही मुश्किल काम रहा है। ‘‘आह से उपा होगा गान’’ वाली बात भी मैं स्वीकार करता हूँ। इसलिए मुझे यह लगता है कि जीवन वर्ग जटिलता, जीवन में कठिनाई जितनी अधिक होती जायेगी, उसी अनुपात में कविता को सहज, सरल और सरस होते जान चाहिए। क्योंकि कविता करना वास्तव में तमाम आंतरिक भावों, संवेदनाओं इत्यादि का एक तरह से विदेचन ही है। जिस तरह भाषा के संदर्भ में हम कहते हैं कि वह कठिन से सरल होने की तरफ बढ़ती है, ठीक उसी तरह मुझे व्यक्तिगत तौर पर यह लगता है कि कविता यद््यपि घोर निराशा, अवसाद, दुख, अति आनंद इत्यादि क्षणों में सहजरुप से पूâट पड़नेवाली एक प्रक्रिया है जो कविता करनेवाले तथा कविता सुननेवाले दोनों को ही अपने साथ एकाकार करने में सक्षम होती है। आप इसे इस तरह भी समझें कि अक्सर वे पंक्तियाँ जो याद रह जाती हैं, वे जटिल नहीं होती लेकिन जटिल से जटिल बात को सहज रूप में अभिव्यक्त जरूर कर देती हैं। जैसे कि त्रिलोचन की ये पंक्तियाँ कि – ‘‘ हिंदी कविता उनकी कविता है
जिनकी साँसों में आराम नहीं था।’’
या फिर ये पंक्तियॉ कि – ‘‘उसकी हथेली को हाँथों में लेकर
मैंने सोचा कि काश दुनिया भी
इतनी ही सुंदर, मुलायम और मर्म होती।’’
याकि सुंदरचंद ठाकुर कि ये पंक्तियाँ कि
मेरे नींद में सपने खत्म नहीं होते
मेरी आँख में उम्मीद अटकी रहती है
मेरे पाँव में लिपटी रहती हैं मात्राएँ
मेरे हाँथ कभी खाली नहीं रहते
मै आदमी हूँ।
ऐसा कहते हुए या कविता की सहजता पर तर्वâ देते हुए एक सवाल मेरे ही अंदर उठता है कि आखिर फि अधिकांश समकालीन कविताएँ इतनी कठिण एवम् जटिल क्यों हैं? इस संदर्भ में जो कुछ सोचने-समझने की थोड़ी-बहुत तमीज मुझे है उसके आधार पर मैं यह कह सकता हूँ कि वर्तमान युग में – कविता की जटिलता या इसके कठीन होते जाने का एक बड़ा महत्त्वपूर्ण कारण है आप आदमी के रूप में आज की पूँजीवादी व्यवस्था के बीच हमारी लाचारी और मजबूरी। आज एक लोकतांत्रिक देश में, बल्कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में साँस लेते हुए भी एक आम नागरिक के रुप में मैं यह बराबर महसूस करता हूँ कि एक जी या के बाद मुझे किसी के खिलाफ कुछ भी कहने की आ़जादी नहीं है। मगर बिना कहे चुप भी रहना संभव नहीं है ऐसे में प्रतीकों, बिम्बों, रहस्य के पुट या अति बौद्धिकता के आवरण के साथ दबे हुए बड़े ही कठिन और जटिल शिल्प के बीच में वह सब कह देता हू जो मै, कहना चाह रहा हूँ। मुझे लगता है ऐसा बेचैनी, ऐसी तड़प आज अधिकांश लोगों की है। शायद यही कारण हो जो आज की कविताओं को कठिन दौर की कठिनतम् रचना बना दे रही है।
दूसरा एक कारण व्यक्तिगत रूचि, पसंद-नापसंद और घोषित अघोषित Projected (प्रोजेक्टेड) काव्यांदोलनों का भी है जो आप से माँग करती है कि आप absurd कविता लिखे, मनोवैज्ञानिक कविता लिखें, शिल्प का नया प्रयोग करते हुए कविता लिखें, कतिपय आंदोलनों एवम् विमर्शो की विचारधारा से जुड़कर कविता लिखें, प्रयोगात्मक कविता लिखें, नये उपमेय और उपमानों की कविता लिखें, फैंटेसी से जुड़ी कविताएँ लिखे, यथार्थवादी कविताये लिखें या कि प्रकृति, प्रेम, धर्म, आस्था इत्यादि से जुड़कर खेमेबाजी की कविताएँ लिखें शिल्पक का नया प्रयोग करते हुए कविता लिखें, कतिपय आंदोलनों एवम् विमर्शो की विचारधारा से जुड़कर कविता लिखें, प्रयोगात्मक कविता लिखें, नये उपमेय और उपमानों की कविता लिखें, फैंटेसी से जुड़ी कविताएँ लिखे, यथार्थवादी कविताये लिखें या कि प्रकृति, प्रेम, धर्म, आस्था इत्यादि से जुड़कर खेमेबाजी की कविताएँ लिखें। सच कहूँ तो ‘खेमेबाजी’ या थोड़े बुरे रुप में कहूँ तो ‘गिरोहबाजी’ भी साहित्यिक जीवन की जटिलता का एक महत्त्वपूर्ण कारण है। लेकिन वर्तमान युग में किसी ‘ब्राँड’ के साथ जुड़ना हमारी मजबूरी / हमारी विवशता है। आप भी इस ठ्ठात को महशूस करते होंगे। सत्ता और शासन के आगे हम जितने आज लाचार हैं उतने ही वुंâठित हैं और उतने ही आत्मकेन्द्रित भी है। फिर व्यक्तिगत पसंद-नापसंद बात तो है ही। पूँजीवादी व्यवस्था आपसे समर्पण और वफादारी की माँग करती है। वफादारी निभाने की सारी रस्में आप से बगावत के सारे हथियार छीन लेती हैं हमारी जरुरते हमें बेहिसाब मजबूर करती हैं और आज का पूरा-का-पूरा बाजार हमारी-आपकी जरुरतों को बढ़ाने में लगे हुए हैं कहने का अर्थ हमें अधिक से अधिक मजबूर करने में लगा है।
आज हमारी मानवीय संवेदनायें हमारी भावनायें अभिव्यक्त तो हो रही हैं लेकिन वे अभिव्यक्त होने के साथ-साथ ‘‘अभिव्यक्ति के खतरों’’ से बचने के लिए कई तरह के मुखौटों के साथ सामने आ रही हैं। वर्तमान समय यकी यह सबसे बड़ी बिड़बना है। जिसकी जड़ में हमारी जिवीत हरने की जरुरतें और उससे जुड़ी मजबूरियाँ हैं। अंत में अर्चना वर्मा की इन पंक्तियों के साथ अपनी बात खत्म करना चाहूँगा कि
सपने में
मुझसे मेरी जड़ ने कहा था
शुक्र है तुमने
सिर्फ सपने में देखा है कि
तुम एक पेड़ हो।
जागने पर कोई और नहीं जानेगा
वरना
जरा सोचो
कितनी भी गहरी हो काई जड़
आकाश बेल के साथ
कितने दिन लड़ सकती है।
कविता
हम अंदर से महत्त्वाकांक्षाओं, लालसाओं से भरे हुए हैं। बाहर भी दुनियाँ ‘बाजार’ के रूप में हमें इसीकारण अधिक लुभाती है। मनुष्य के अंदर बाहर का द्वंद्व आज एक ‘व्याक वैश्विक सत्य’ के रुप में रेखांकित किया जा सकता है। इस द्वंद्व में आत्मकेद्रियता, हताशा, निराशा, कुंठा, संकिर्णता, असहिष्णुता, अमानवियता इत्यादि की व्याप्ती और अधिक बढ़ी है। संबंधों में विश्वास, त्याग, समर्पण जैसी बातें लगातार कम हुई हैं। पूँजीवादी संस्कृति अधिक निर्भयरूप से हमारे सामने है और हम एक सहाय व्यक्ति की तरह इसे देखते हुए भी चुप रहने को मजबूर। ऐसे समय में मनुष्य, मनुष्यता और संवेदनाओं के साथ खड़ी कविता को यह पूँजीवादी व्यवस्था सिर्फ के ‘प्रोडक्ट’ के रूप में मुनाफाखोरी का हथियार बना सकती है लेकिन उसके विचारों में शामिल नही हो सकती।
जबकी कवि ‘कविता के संकट’ की चर्चाएँ होती हैं तो यह संकट सिर्फ किसी साहित्यिक सिद्ध नहीं होता अपितु उस पूरी व्यवस्था का होता है, जो ‘स्व के विस्तार’ में सिर्फ मनुष्य ही है। अपितु पूरी चराचरा संस्कृती को प्रकृति को अपने अंदर समायित करते हुए जबके कल्याण और विकास की बात करती है। कविता की अर्थवत्ता उसकी संवेदनात्मक प्रतिबद्धता से जुडी हुई है।
अपने समय समाज और परिवेश के प्रति कविता की प्रतिबद्धता ने ही उसे वह शक्ति प्रदान की है जिससे वह तमाम प्रतिकूलताओं मे भी डटी रहती है। यह प्रतिबद्धता की भावपूर्ण जितनी अधिक विस्तृत होगी। उतनी ही वह शक्तिशाली भी होगी। लेकिन इस प्रतिबद्धता में भी वैचारिक एवम व्यक्तिगत संकुचन जितना अधिक होगा : कविता उतनी ही कमजोर होगी। अभिव्यक्ति की रचनात्मक स्वतंत्रता सही मायनों में सृजनात्मक भी मानी जा सकती है जब वह सामान्य की आशाओं, आकांक्षाओं उनके सपनों इत्यादि को एक परचम की तरह इस्तमाल करे। ऐसी कविता हमेशा खतरे में नजर आयेगी, संकटग्रस्त रहेगी लेकिन रहेगी। जो यह उम्मीद बनाये रखेगी कि दुनियाँ में मनुष्यता का क्षरण रोका जा सकता है। इसे क्षरण के संरक्षण के लिए कविता हमेशा रणभेदी का बिगूल बजाये रहती है। मनुष्यता के परितोष, परविकार और परिमार्जन के लिए आदर्श प्रादर्श और प्रतिदर्श के रुप में जनोमुखी कविता को देखा जा सकता है। कविता प्रतिकार और परोपकार दोनो काम एक सामान्यकरण है। कविता सवाल उळाती है, जूझती है, ताकतबद सख्त, शासन और बाजार की चुनौतियों से लगातार जूझती है। जनसंचार क्रांति में कविता की भूमि को अधिक विस्तृतहोने में सहायता आवश्यक की है। इससे उसकी गति शीलता लगातार बनी रही है। अधिक विस्तार के साथ कविता अधिक ---- हुई की नहीं इसपर सवाल खड़ा किया जा सकता है लेकिन उसकी लोकप्रियता और जनसामान्य तक पहुँच के विस्तृत फलक को लेकर विवाद नही के बराबर है।
फवमर्श केन्द्रित कविताओं का एक नया दौर शुरु हुआ। कई अछूते बिंदुओं का केन्द्र में रखकर कविता रचने की शुरुआत हुई। यहाँ एक बार यह भी देखी गई कि ‘साहित्यिक अराजकता’ के गढ़ धराशायी हुए और विकेन्द्रि’ व वैचारिक अराजकता से भरी हुई, कोरी भावुकता से भरी हुई कलावाद और शिल्प को ठेंगा दिखाती हुई कविताओं के अतिरेक में इनकी व्याप्तिको बढ़ाया लेकिन इनकी गहराई का प्रश्न
१) राजेन्द्र यादव – ‘‘आज एक बौद्धिक स्टेटस के नाम पर हर लघु पत्रिका साठ प्रतिशत कविताओं से भरी होती है। जिसे शायद कुछ मित्र कवियों के सिवा काई नहीं पढ़ता। ... मुझे लगता है कि नवें और दसवें दशक की कविता का इतिहास इक्कीसवीं सदी में जब लिखा जाएगा तो ये दो दशक बिल्कुल खाली छोड़ देने पड़ेंगे। (वर्तमान साहित्य : शताब्दी कविता विशेषांक : मई-जून २०००, पृष्ठ ५८२)
२) कुवरनारायण – ‘‘मैं समझता हूँ जिस तरह कई संदर्भो में सरोकार विकसित हुए हैं, वे सबसे बड़ी उपलब्धि हैं। दुनिया की सभी कविताओं को देखता हूँ और अपनी कविता को सामने रखकर यह पाता हूँ कि जितने विविध इतिहास, समस्याओं और प्रभावों को यह आत्मसात करती है, वह सचमुच आश्चर्य की बात है। एक और बात जोडूंगा कि समकाली कविता ने हमारा ध्यान जिस तरह से उपेक्षित वर्ग तरफ मोडा है, यह बहुत बडी बात है।’’ (वही पृष्ठ ५६४)
३) शम्भुनाथ –‘‘बीसवीं सदी के अंतिम दो दशकों की कविता यथार्थ के आतंक और कलावाद के मोह से ही नहीं, साहित्यिक अराजकतावाद से भी युक्त हुई है।’’ (वही पृष्ठ ६१५)
(मूँदे आयि कतहुँ कोउ नाही।) लक्ष्मण मन ही पण परशुराम को कविताओं और समाज के बीच आपसदारी बढी है। ‘‘वर्तमान में सृजित कवितायें और वर्तमान के लिए सृजित कवितायें’’
हमारी संवेदना को स्पंदित करने का काम कविता करती है। यह जीवन को अधिकमानवीय बनाने की एक प्रतिबद्धता है। विनम विश्वास के शब्दों में, ‘‘कविता मनुष्यता की संवेदन-लय है। अमानुषीकरण की प्रक्रिया में सर्जनात्मक हस्तक्षेप है।’’ (आज की कविता विनय, विश्वास, राजकमल प्रकाशन २००९, पृष्ठ क्रमांक -१३) कविता हमारी समझ को अधिक विवेकपूर्ण बनाते हुए ‘स्व के विस्तार’ के लिए प्रयत्नशील रहती है। मा. रामचंद्र शुक्ल ने कहा है कि कविता हृदय की मुक्ति साधना के लिए शब्द विध्दन करती है। जैसे कल्पना के आधार यथार्थ होता है उसी तरह कविता का आधार जीवन है।
‘कलाबाजी’ हृदय प्रसव को सीख लेती है पूजित और प्रतिष्ठित होना कविता की कामयाबी की कसौटी नहीं हो सकती। कविता कोई उत्पाद नहीं है। निष्प्राण शब्द संयोजन से कविता की प्राण प्रतिष्ठा नहीं हो सकती। कविता मुश्किलों से बचने का नही उनके बीच से गुजरने का रास्ता है। सफलता और सार्थकता दोनो साथ घटित हो सकते हैं।
सहजता कविता के मूल स्वभाव है। विचारों एवम् भावों के सुदेर संयोजन कविता की आत्मा होती है। विचार और भावों का संश्लिष्ट रूप संसार के द्वद्वात्मक संबंधों से उत्पन्न होते है। ‘इनके अभावों की र्पति तकनीक या कलाबाजी से नहीं की जा सकती।
मुक्तिबोध – प्रतिक्रियाएँ मन में किसी काव्यभाषा के वस्त्र पहनकर नही आती ‘अनुभूतिशून्य वाक्यों’’ की बाढ़ ने कविता के नाम पर जो अंबर खडा किया उसे भी समझना होगा। सिर्पâ शब्द संयोतन या छइे कौशल कविता नहीं हो सकती।
विश्व व्यवस्था में पैसे के बढ़े हुए दबदबे से आज कौन इनकार कर सका ७० हजार के करीब कन्स्ट्र--- कंपनियॉ।
शकेब जलाली – मलबूस (कपडे) खुशनुमा हैं मगर खोखले हैं जिस्म घनतंत्र के भोंपू चैनल। समकालीन जीवन में शक्ति का प्रतिमान है खरीदने की ताकत। ---- की तरह जीना – कविता है।
अरूण कमल – जिस तलवार ने सैकड़ों कत्ल किए उसपर भी किती सुंदर नक्काशी र्थी
सुंदर क्या लगना चाहिए? क्या मृत्यु/बर्बरता को सुंदर मान जा सकता है? दरअसल अलग अलग सबकुछ सुंदर है। कुरुपता स्वायत्तता की जगह सापेक्षता में चीजों को देखना शुरू करते हैं – उनकी कुरूपता सामने आ जाती है। सुंदरता एक घटना है जिस क्षण जीव की सुंदरता का हमारी दृष्टि से तालमेल बैठ जाये। अंगों का योगफल ही उसका स्त्रीत्व है। चेतना को आच्छादित करने का काम विज्ञापन कर रहे है। कविता की सुंदरता बिकने में नहीं है। बढ़ती हुई असहिष्णुता जीवन की कुरूपता है जीवन प्रकृति और मनुष्य के साहयर्च से बना है। प्रकृति मनुष्यकी अंत: प्रकृति बनी जिसका मूल स्वभाव सिकुड़ना नहीं है। आज का विकास संवेदनशून्यता और क्रूरता का भी है।
‘‘न कहना आसान है
और कहना मुश्किल
लेकिन कहते चले जान
न कहने जैसा है
और काफी आसान
- मनमोहन
हर सफलता के लिए शॉर्टकट ढँढना ही आधुनिक अनुसंधान है।
‘‘पुल पार करने से
पुल पार होता है
नदी पार नहीं होती
नदी पार नहीं होती नदी में धँसे बिना।’’
- नरेश सक्सेना
पाने की प्रक्रिया और अनुभव ही महत्त्वपूर्ण होता है। जिसे लगातार नजरअंदाज किया जा रहा है।
फसला जब भी चिरागों का उठा
फैसला सिर्फ हवा करती है
- परवीन शाकिर।
रघुवीर सहाय – पहले खुदा के यहाँ देर थी अँधेर न था
अब खुदा के यहाँ अँधेर है और उसमें देर नहीं।
बहुत सारे लोगो के लिए कविता बहुत कुछ है। इस ‘बहुत कुछ’ में ‘कुछ भी नहीं’ शामिल है। अपने इतिहास को सहेजने और याद रखने का एक कारगर माध्यम कविता रही है। जीवन को अधिक गहरे संदर्भो में देखने की एक दृष्टि कविता के माध्यम से विकसित होती है। कविता के कई-कई अर्थ होते हैं। अर्थात अपने अनुभवों के आधार पर हम उसके अर्थ को समझते हैं। अत: यहाँ ‘अर्थ’ से अधिक महत्त्वपूर्ण व ‘अनुभव’ है। जिनकी यात्रा हम उस कविता विशेष के माध्यम से करते है।
विडंबनाओं, जड़ताओं पर लगातार प्रहार करना कविता का मूल धर्म है। मनुष्यता की राह में रोडत्रा बननेवाली हर बात के खिलाफ कविता का संघर्ष सहज है। सार्वजनिक दया और करुणा का भाव कविता के प्राणतत्व है। ‘यहाँ नितांत निजी वेदल भी --- अपने ---- सबके सुख-दुख के भाव समेटे होती है। अपने समय और समाज पर कटाक्ष कविता के ही बूते की बात है।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और अपने ढ़ग से अपनेआप को व्यक्त करने के तर्को के बीच सुनिश्चित सैद्धांतिकी की कमी ने कविता के क्षेत्र में एक तरह की अराजकता ला यी है। कविता का छापने और पढ़ने की निराशा का यह एक प्रमुख कारण माना जा सकता है। एक समय आया जब छंद के बंधनों से मुक्त होकर कविता करना ही आप को आधुनिकता और प्रगतिशीलता के खाँचे में खड़ा कर रहा था। और छंदयुक्त कविता की सौ वर्षो की यात्रा के बची ही यह ‘मुक्त कविता’ अराजकता का पर्याय नजर आने लगी।
आज की कविता में जो ‘मनमाना पण’ है वह आज चुभने लगा है। इसकी लोकप्रियता में कमी आयी है। कोरी बयानबाजी, वैचारिक प्रवचन, राजनीतिक भाषण इत्यादि से कविता ----- हो गई है। कविता को संकेतों में संवाद करना चाहिए। उसके अंदर अनुभवों की लंबी यात्रा होनी चाहिए। कविता उस बीज की तरह होती है जिसमें वृक्ष होने की शक्ति अंर्तनिहित होती है। सधनता और समूहता कविता की पहचान रही है। रचयिता अपने अनुभवों से अपने समय और समाज की बुरीतियों से टकराने का बल मिलता है। कविता में बिम्ब, प्रतीक, रुपक, दस, कल्पना, भाषा और शिल्प में से कोई भी पेशेवर तरीके से गुना नहीं जा सकता। ये कवि की विराट दृष्टि और संवेदनात्मक छटपटाहट में अपने आप सहपात्र बन जाते है।
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