संगीता पांडेय
जीवन में साहित्य का होना बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है और साहित्य में यदि उद्भ्रांत जैसा व्यक्ति हो तो साहित्य को फलाफूला माना जा सकता है. बहरहाल, लेनिन ने कहा था कि सच्चा साहित्य वह है जो जनता की भाषा बोले .अगर आज के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो ऐसे बहुत कम साहित्यकार हैं जो जनता की भावनाओं को समझ कर लिखते हैं. उनमें से रमाकांत शर्मा 'उदभ्रांत 'एक हैं. उद्भ्रांत एक ऐसे संवेदनशील रचनाकार हैं जिन्होंने अपनी रचनाओं के द्वारा भ्रष्टाचार का खंडन एवं उसका घोर विरोध किया है . 73 वर्ष की उम्र में भी वह एक जिंदादिल इंसान हैं. परिस्थितियों के आगे उन्होंने कभी हार नहीं मानी. अपने बेटी (सुगंधा) के पति के असामयिक मृत्यु ने बेटी को ही नहीं पिता को भी दुःख के सागर में डुबो दिया था पर उद्भ्रांत जी ये जानते थे कि अगर उन्होंने धीरज से काम नहीं लिया तो बेटी और नाती अथर्व को कौन संभालेगा. उद्भ्रांत जी ने अपनी बेटी का पुनर्विवाह दिल्ली के हेमंत कुलश्रेष्ठ से करा दिया. उद्भ्रांत का साहित्यिक जीवन ही नहीं व्यक्तिगत जीवन भी लोगों के लिए एक उदाहरण प्रस्तुत करता है. व्यक्तिगत जीवन हो या साहित्यिक जीवन उन्हें मैंने हमेशा सक्रिय ही देखा है. समाज में होने वाली घटनाओं पर उद्भ्रांत बिना किसी पक्षपात के तुरंत प्रतिक्रिया देते हैं फिर चाहे वह सरकार के पक्ष में हो या उनके विपक्ष में . उद्भ्रांत ने हिंदी साहित्य में अपनी पहचान एक कवि के रूप में बना चुके हैं. उद्भ्रांत जब लिखते हैं तो गोया हर आदमी की बात उसमे झलकती है. वे ' हिंदी के श्रेष्ठ कवियों मे से एक हैं. उद्भ्रांत जी की कविताएं अपने समय और समाज के सारे सवालो से हमे रू-ब-रू कराती हैं . जीवन का कोई ऐसा पक्ष नही है जो इनकी कविताओं में चित्रित न हुआ हो. कहा जा सकता है कि उद्भ्रांत की कविताएं बहुआयामी है , जिसमें मानववादी दृष्टिकोण दिखाई देता है . इनकी कविता कल्पना से लेकर यथार्थ की और असाधारण से लेकर साधारण तक विकसित हुई है . यही वजह रही कि उद्भ्रांत की साहित्यिक रचनाओं ने उन्हें यशस्वी बना दिया. इन्होंने साहित्य की लगभग प्रत्येक विधा पर अपनी लेखनी चलाई है.
उद्भ्रांत ने कानपुर के ' आज ' जो कि एक प्रतिष्ठित दैनिक पत्र के गुणधर्म से परिपूर्ण था, में वरिष्ठ संपादक के रूप में 1975 से 1978 तक कार्य किया है . उद्भ्रांत ने सरकारी और निजी विभाग में कई नौकरियां की. इसके साथ-साथ उन्होंने अपना लेखन कार्य भी जारी रखा है . अगर हम इनके काव्य -यात्रा को देखते है तो पाते हैं कि उद्भ्रांत जी ने लगभग 11 वर्ष की उम्र से ही कविता लिखना प्रारंभ कर दिया था. तब से अब तक ये निरंतर लिख रहे है .
उद्भ्रांत ने हरिवंश राय बच्चन को अपना काव्य गुरु माना है और ये भी कितना सुखद की जिस नाम से ये साहित्य मे आज प्रसिद्ध हुए है वो नाम भी बच्चन जी द्वारा इनके ' सृजन के लिए बेचैन रहने के लिए दिया गया है . इसका एक गीत ' कांटों का प्रतिवेदन ' है जिसको महाराष्ट्र शिक्षा बोर्ड द्वारा प्रकाशित महाराष्ट्र के 12 वीं कक्षा के पाठ्यक्रम में रखा गया है '.
'स्वयंप्रभा ' यह उद्भ्रांत का खंडकाव्य है जिसमें उन्होंने कुल 9 सर्ग की रचना की है इसमें कवि ने रामायण की स्वयंप्रभा जैसी पात्र जिस पर आज तक किसी का ध्यान नहीं गया है पर अपनी रचना करते हुए पर्यावरण प्रदूषण और आसुरी प्रवृत्तियां दोनों पर गंभीर चिंता व्यक्त की है .इस वर्ष इसे मुंबई विश्वविद्यालय के B.A के पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है. रुद्रावतार ' ये उद्भ्रांत की बहुचर्चित कविताओं में से एक है .इस कविता का प्रथम प्रकाशन मुंबई के दैनिक अखबार में महाशिवरात्रि के पावन पर्व पर 1995 में हुआ था . यह कविता अपने प्रकाशन समय से ही चर्चा में रही है . कई विद्वान इसकी तुलना निराला की लंबी कविता ' राम की शक्ति पूजा ' से करते हैं. मुंबई विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डॉ करुणाशंकर उपाध्याय के निर्देशन में ' राम की शक्ति पूजा ' और ' रुद्रावतार ' पर एक लघु शोध भी लिखा गया है.
राधामाधव ,अभिनव पाण्डव , वक्रतुण्ड' त्रेता, उद्भ्रांत के चर्चित काव्य है. त्रेता उद्भ्रांत का महाकाव्य है जिसने उन्हें महाकवि होने का गौरव प्रदान किया है इसका प्रकाशन 2009 में हुआ था उद्भ्रांत ने रामकथा से जुड़ी लगभग सभी नारी पात्रों को लेकर आत्मकथात्मक शैली में इस काव्य की रचना की है.' ब्लैकहोल,अनाद्यसूक्त ,जल इनकी चर्चित कविताएं हैं. उद्भ्रांत के कविताओं की भाषा सरल है. समान्य व्यक्ति इसे समझ सकता है और यही एक उच्चतम लेखक को चाहिए भी कि वो जनसामान्य तक पहुंच सके. साहित्यकार होना एक बात है, कवि भी होना उसमें चार चांद लगाता है. उद्भ्रांत ने साहित्य की लगभग हर विधा में लेखन कार्य किया है जो उन्हें तो एक समृद्ध लेखक बनाता ही है साथ ही उनकी साहित्यिक सेवा को भी प्रकट करता है.
हिंदी साहित्य में गद्य साहित्य एक सशक्त विधा है. जब कोई भी रचनाकार अपनी रचना आम बोलचाल की सरल भाषा में लिखता है तो वह उसकी गद्यात्मक कृति होती है. जब भी हम इसे पढ़ते हैं तो हमें और सुनने वालों को ऐसा प्रतीत होना चाहिेए कि कोई उनसे अपनी बात कह रहा है पद्य साहित्य में जहां भावनाओं की प्रधानता होती हैं वहीं गद्य साहित्य में विचारों की प्रधानता होती है इसका क्षेत्र भी अधिक विस्तृत है . इसमें नाटक कहानी ,उपन्यास,निबंध आलोचना ,संस्मरण ,आत्मकथा जीवनी यात्रावृत्तांत, रेखाचित्र, को पढ़ा और लिखा जाता है. इस प्रकार देखा जाए तो गद्य साहित्य मानव जीवन के विशाल पक्षों को भी स्पर्श करता है यह मनुष्य के तर्क प्रधान चिंतन की उपज है इसकी भाषा व्यवहारिक होती है. उद्भ्रांत ऐसे साहित्यकार है जो निरंतर हिंदी की दोनों विधाओं में लिखते रहे हैं. यह अलग बात है कि हिंदी साहित्य में उनकी पहचान एक कवि के रूप में है.पद्य साहित्य की तरह ही इनका गद्य साहित्य विस्तृत है. कहानियां, आलोचना , संस्मरण आदि विभिन्न विधाओं पर लिखते रहे हैं. ये एक अच्छे संपादक हैं . इन्होंने एक लघु उपन्यास ' नक्सल ' लिखा है. इसमें उन्होंने नक्सली और उनकी जीवन शैली का सटीक चित्रण किया है. इस उपन्यास में उद्भ्रांत ने ये दिखाने की भी कोशिश की है कि अगर कोई इस तंत्र में के चक्कर में फंस जाता है तो वह चाहकर भी इससे नहीं निकल पाता है.' सृजन की भूमि ' में उद्भ्रांत जी ने अपनी रचनाओं के भूमिकाओं को संग्रहित किया है . इस पुस्तक पर प्रोफेसर हेमंत जोशी लिखते हैं कि " उद्भ्रांत कि यह पुस्तक अंग्रेजी के विख्यात नाटककार जॉर्ज बर्नार्ड शॉ के उस काम की याद दिलाता है जिसमें उन्होंने अपने नाटकों की भूमिकाओं को पाठक समाज के लिए प्रस्तुत किया था. कालांतर में उसे भी एक महत्वपूर्ण कृति स्वीकारा गया. बीसवीं सदी के प्रारंभ में सुमित्रानंदन पंत द्वारा लिखित 'पल्लव' की ऐतिहासिक भूमिका आज भी लोगों की स्मृति में है. इसी तरह सदी के मध्य में लिखित हरिऔध द्वारा ' रसकलस' और 'प्रियप्रवास ' तथा निराला द्वारा 'गीतिका' की लंबी भूमिका भी रचनाकार द्वारा अपने रचनाकर्म की गंभीर पड़ताल करने के उदाहरण के रूप में हमारे सामने आती हैं .
अपनी जीवन और समाज की यथावश्यक चर्चा के साथअपनी कविता ,कहानी और इतर सृजन के विभिन्न पहलुओं का बेबाक विश्लेषण करती कवि उद्भ्रांत की सुदीर्घ भूमिकाएं टी एस इलियट के अपनी कविता के संबंध में सूत्रित उस कथन का स्मरण करती हैं जिसमें उन्होंने अपने तत्संबंधी आलोचना कर्म को 'पोइट्री वर्कशॉप का बाई प्रोडक्ट' अथवा काव्य निर्माण के प्रसंग में अपने चिंतन का विस्तार कहा है ." उद्भ्रांत की 2018 में आत्मकथा का पहला खंड मैंने जो जिया ( बीज की यात्रा) आई. इसमें उन्होंने 27 वर्ष के अपने जीवन को पाठकों के सामने रखा है . इस आत्मकथा का आरंभ विफल स्वतंत्रता संग्राम 1857 से किया गया है . उद्भ्रांत के संस्मरण पर आधारित कई रचनाएं हैं जैसे स्मृति के मील पत्थर , शहर दर शहर उमड़ती है नदी , कानपुर ओह कानपुर , मेरी प्रगतिशील काव्य यात्रा के पदचिन्ह, जो कि इनकी स्मृति का लोहा मनवाने के लिए काफी है. उद्भ्रांत ने ' शहर दर शहर उमड़ती है नदी ' में बीसवीं सदी के रचनाकारों का ऐतिहासिक दस्तावेज प्रस्तुत किया है इसमें उद्भ्रांत जी निर्भय होकर अनेक चौकाने वाली सच्चाईयां उजागर की है जो कि साहित्य के कई दिग्गज माने जाने वाले लेखक भी एक मनुष्य की भांति पुरस्कार के लोभ को नहीं छोड़ पाते हैं वे लिखते हैं " हमारे शिखराचार्य नामवर जी और उनके दायं हाथ प्रो. कमलाप्रसाद की कृपा- कोर से मिले ऐसे पुरस्कारों की बदौलत इन 'महाकवियों ' की ऐसी मुद्राएं किसी अश्लील फिल्म की तरह साहित्य जगत में चलती नज़र आती हैं."
हिंदी साहित्य के वर्तमान दौर को देखते हुए हम ये कह सकते हैं कि उद्भ्रांत जी जैसे साहित्यकार जब आज हम लोगों के बीच मौजूद है तो हमें साहित्य के पतन के प्रति चिंतित होने की आवश्यकता नहीं है ये वर्तमान दौर के सशक्त साहित्यिक हस्ताक्षर हैं.
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