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व्यक्तित्व-कृतित्व
जन्म-24 मई 1932, दमोह
शिक्षा-एम.ए. दर्शनशास्त्र, हिन्दी, साहित्य रत्न
महाप्रयाग-7 नवंबर 2000 देव उठनी एकादशी (जावरा जिला रतलाम)
पारिवारिक वातावरण-
दिनकर सोनवलकर का मध्यमवर्गीय परिवार में जन्म हुआ । 6 भाई व 4 बहनों में पाँचवे क्रम पर थे। पिता श्रीधर सोनवलकर दमोह के प्रतिष्ठित वकील थे व साहित्य, संगीत, कला एवं संस्कृति के प्रति उनमें स्वाभाविक रूचि एवं आग्रह था । पत्नी श्रीमती मीरा सोनवलकर, सागर के प्रतिष्ठित वकील एवं अंग्रेजी के प्रथम पत्रकार श्री गोपाल काशीनाथ खैर की पुत्री हैं । दिनकरजी व मीराजी का मिलन भी बड़े रोचक अंदाज में हुआ । कवि व गीतकार विट्ठल भाई पटेल के पिता श्री लल्लूभाई पटेल के श्री गोपालराव खैर, कानूनी सलाहकार थे । दिनकरजी ने काॅलेज की शिक्षा डाॅ. हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय सागर से प्राप्त की, जहां आचार्य रजनीश उनके सहपाठी थे । सागर में दिनकरजी व विट्ठलभाई ने ‘किशोर साहित्य समिति’ नामक संस्था स्थापित की, जिसमें स्व. मुकेश, अमीन सयानी, डाॅ. बच्चन, गोपालसिंह नेपाली, महादेवी वर्मा, पंतजी जैसे रचनाकारों की काव्य गोष्ठियाॅ आयोजित की गई । दमोह में दिनकरजी के बालसखा शरद श्रीवास्तव के भाई सुशील श्रीवास्तव मीराजी के पड़ोसी थे। शरदजी ने मीरा को दिनकरजी से मिलवाया । सुशीलजी के घर एक संगीत महफिल में दोनों एक दूसरे पर फिदा हो गए तथा ‘‘मिलते ही आॅखे दिल हुआ दीवाना किसी का, अफसाना मेरा बन गया, अफसाना किसी का’’ (मो.रफी, शमशाद बेगम) दोनो ने युगल रूप में प्रस्तुत किया । मीराजी सागर के मराठी विद्यालय में पढ़ी तथा संगीत, नाटक, कला के प्रति उनका भी स्वाभाविक रूझान रहा है । मीराजी उच्चवर्गीय, सुविधाभोगी, अनुशासित परिवार की व दिनकरजी मध्यमवर्गीय साधारण परिवार के व स्वभाव से फक्कड़, लापरवाह तथा मस्तमौला प्रकृति के रहे हैं । मीरा ने अपने आपको त्याग, सहनशीलता तथा स्नेह के साथ दिनकर को समर्पित किया व विषम परिस्थितियों में भी समायोजित किया ।
दिनकरजी को सन 1955 में खण्डवा के शासकीय महाविद्यालय में सहायक प्राध्यापक की नौकरी मिली । वहाँ माखनलाल चतुर्वेदी ‘एक भारतीय आत्मा’ तथा श्रीकांत जोशी का सत्संग सानिध्य रहा किंतु ‘दमोह’ शब्द में छिपे मोह ने उन्हें पुनः दमोह आने को विवश किया व उन्होंने तीन वर्ष बाद सरकारी नौकरी छोड़कर दमोह के निजी स्कूल में अध्यापन किया। यह एक जोखिम भरा कदम था। इसी दौरान दिनकर – मीरा का प्यार पुष्पित व पल्लवित होकर 20 मई 1960 को विवाह बंधन में परिणत हुआ । सन 1960 में जबलपुर के एक कवि सम्मेलन में महाकवि बच्चनजी के सम्मुख उन्हीं का दुखांत गीत (ज्तंहपब ेवदह) ‘‘साथी अंत दिवस का आया, मन बहुत पछताया’ का दिनकरजी ने सस्वर प्रस्तुतीकरण किया तो बच्चनजी की आँखों से अश्रुधारा बह निकली । इसके बाद बच्चनजी का दमोह आना, मुंबई में अमिताभ बच्चन द्वारा दिनकरजी को सितार सुनाना, बच्चनजी का रतलाम काॅलेज के वार्षिकोत्सव में ‘मधुशाला’ का पाठ व दिनकरजी से सतत पत्राचार व जीवंत सम्पर्क लगभग 1993 तक निरंतर कायम रहा । सागर में सन 1954 में विट्ठलभाई पटेल के निवास पर मुकेश के कार्यक्रम में, दिनकरजी ने भी फिल्म परवरिश का गीत ‘‘आँसू भरी है ये जीवन की राहें, कोई उनसे कह दे हमें भूल जाए’’ जब प्रस्तुत किया तो मुकेशजी भी गदगद हो गए व अपने इस प्रशंसक की मुक्त कंठ से प्रशंसा की । दिनकरजी के पिता श्रीधर राव ब्रिज के खिलाड़ी थे व अजीत जोगी के श्वसुर श्री पीटर सालोमन के साथ घंटों ब्रिज खेला करते थे । दिनकरजी सन् 1964 से 1970 तक शासकीय महाविद्यालय, रतलाम व जुलाई 1970 से मई 1993 तक जावरा काॅलेज में दर्शनशास्त्र के प्राध्यापक रहे
रजनीश के सहपाठी के रूप में दिनकरजी ने उन्हें नजदीक से देखा, महसूस किया व उनपर एक आलेख भी लिखा जो राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हुआ ।
बचपन से ही दिनकरजी कला, साहित्य, संगीत में रूचि के साथ, हाॅकी के भी कुशल खिलाड़ी थे । संवेदनशीलता, सहानुभूति, दया, करूणा के गुण व विसंगतियों के प्रति विरोध के तेवर, उनमें प्रारंभ से या कहें कि बचपन से ही विद्यमान थे । वे सामाजिक, राजनैतिक जीवन, घटनाक्रम के प्रति सक्रिय व सचेतन रूप से जागरूक थे। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सक्रिय सदस्य होने के कारण विद्यार्थी जीवन में जेल भी गए व विद्यालय से निष्कासित भी हुए। आचार्य रजनीश, संघ प्रमुख श्री सुदर्शन, ड़ी.जी. भावे, तत्कालीन मुख्य सचिव, म.प्र., भी उनके सहपाठी रहे ।
इसी परिवेश में दिनकरजी ने लिखना प्रारंभ किया । यदि प्रथम रचना की चर्चा की जाए तो उपलब्ध व सुरक्षित साहित्य एवं पुरानी फाइलों के आधार पर ‘आया बसन्त’ (दिनांक 02/02/1960) व ‘शुभकामना’ (दिनांक 21/02/1960) उनकी पहली प्रकाशित रचना है जो ‘युगधर्म’ में प्रकाशित हुई।
वे सब जिन्होने मुझको दिया धोखा,
जिन्होंने पीठ में पीछे से छुरा भोंका,
उन सबकी, जीवन में, धोखे से पहचान न हो,
उनके कोई साथी कभी बेईमान न हो ।
वे सब, जिन्होंने मेरी राह में काँटें बिछाए,
मेरी असफलता के लिए, षड्यंत्र रचाए,
उनके जीवन में, आशा के फूल खिलें,
उनकी हर कोशिश को, कामयाबी का सेहरा मिले ।
वे सब, जिन्होंने मेरे सपनों की हत्या की,
मेरे प्यार की उपेक्षा की,
उनके सब मीठे सपने, सत्य की किरण पायें,
उनके प्यास की हर कथा, सुख के अगणित क्षण पाये ।
शुभकामना
प्रथम प्रकाशन ‘अंकुर की कृतज्ञता’ (23/09/1962) को लोकार्पित व लोकचेतना प्रकाशन जबलपुर से ्रकाशित है । विमोचन, डाॅ. भवानीप्रसाद तिवारी व प्रख्यात व्यंगकार हरिशंकर परसाई द्वारा दमोह में किया गया। परसाईजी ने रूस कार्यक्रम में इस यात्रा के संस्मरण भी सुनाए ।
प्रथम प्रसारण, आकाशवाणी के इंदौर केन्द्र से 1965 में हुआ । 1965 से 1996 तक लगभग 31 वर्ष तक दिनकरजी की कविताएं, वार्ताएं व आलेख आकाशवाणी के इंदौर केंद्र से सतत प्रसारित होती रही ।
दिल्ली दूरदर्शन से भी गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर कई बार दिनकरजी ने लाल किले की प्राचीर से कविताएं पढ़ी । इसमें वृक्षारोपण अभियान की निरर्थकता व असफलता पर केंद्रित व्यंग्य रचना, ‘हमीदन की बकरी’ बहुचर्चित एवं लोकप्रिय रही ।
प्रारंभिक कविताओं में श्रृंगार रस व पीड़ा एवं वेदना के स्वर दिखाई देते हैं, किन्तु बाद में 1965 से 1975-80 के मध्य व्यंग्य के साथ, बोध व दार्शनिक कविताएँ भी लिखी व सराही गई । इन रचनाओं में व्यवस्था के प्रति आक्रोश, नई दिशा, नई चेतना के साथ बिखरते पारिवारिक मूल्यों की रक्षा का सिंहनाद भी सुनाई देता है । अपने पूज्य पिताजी के निधन व तेरहवीं तक के क्रियाकर्म के दौरान, प्रतिदिन लिखी गई कविताएँ, जीवन के यथार्थ, वैराग्य व अंतिम सत्य को प्रस्फुटित व चिन्हित करती हैं।
तत्कालीन लब्ध प्रतिष्ठित पत्रिकाएँ जैसे युगधर्म, कर्Ÿाव्य, नईदुनिया, धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, नवनीत कादंबिनी, दिनमान, सारिका, प्रहरी, ज्योत्सना (पटना), सहयोगी (कानपुर), लहर (अजमेर), भारती वासंती (बनारस), क्रांतिकारी युवक (भरतपुर), जयवाणी (उज्जैन), नवभारत, कर्मवीर (खण्डवा), वातायन (धमतरी), चरित्र निर्माण कविता विशेषांक, ऋषिकेश, ज्ञानोदय, हिन्दी टाईम्स (दिल्ली), राष्ट्रभारती (वर्धा), सवेरा (राजनांदगांव), भारती (मुंबई), वीणा (इन्दौर), राष्ट्रवाणी (पूना), वासंती (बनारस), मुक्ता रंग (मुबंई), विन्यास (सागर), जागृति (चंडीगढ़), रागरंग (कलकत्ता), पथिक (जलपाई गुडी), आधार (मुंबई), रूपलेखा (कलकत्ता), राष्ट्रसेवक (असम), लोकमित्र (बिलासपुर), सवेरा, रचना (गोरखपुर), कालिदास (उज्जैन) सीमांत (मुकंदगढ़, राजस्थान), ज्ञानोदय, आत्मा (पटना), संकेत (सागर), संजय (सागर), विचार और समाचार (रायपुर), नवलेखन (भोपाल), प्रयाग (अमरावती) , नागपुर टाईम्स, नईधारा, श्रंृगार (दिल्ली), कल्पना शब्द, कविता (अलवर राजस्थान), जबलपुर समाचार, स्यादवाद पत्रिका, आजकल (दिल्ली), भाषा (त्रैमासिक), हंसोड़ (रांची), रूपलेखा (कलकत्ता), अग्रवाही (इन्दौर), मंसखरा, केन्द्र, मंगलदीप (मुंबई), गल्प भारती, उत्कर्ष, सैलानी (दिल्ली), स्वदेश, मंगलदीप, तीर्थंकर, व्यंग्यम (जबलपुर), सार्थक, हिन्दी ब्लिट्ज, मध्यप्रदेश संदेश, महाकौशल (रायपुर) में निरंतर 1960 से 90 तक प्रकाशित व चर्चित रहे ।
वैसे लेखन की शुरूआत सन 1955 से की व 1957 से नियमित प्रकाशन प्रारंभ हुआ ।
दिनकरजी के शब्दों में – ‘‘पाठकों की मोहब्बत ही मेरी ताकत है इसीलिए मुझे बुजुर्ग पीढ़ी का आशीर्वाद, समकालीनों का स्नेह और अनुज पीढ़ी का प्यार भरपूर मिला है । एक रचनाकार को और चाहिए ही क्या ।’’
अद्भुत तथ्य यह है कि मराठी भाषी होते हुए भी हिन्दी लिखने व पढ़ने पर गजब का अधिकार था । बुंदेलखण्ड में जन्म होने के बावजूद 1964 से मालवा में रहे। वे कहते थे – ‘‘हम फिदाये मालवा, मालवा फिदाये हम ।’’ कवि का अनुभव संसार, अनेक आयामी तथा बहुरंगी होता है । मराठी दलित कविताओं व मराठी समकालीन कविताओं का हिन्दी अनुवाद भी किया । कहीं कहीं अनुवाद मूल कविता से भी बेहतर व सशक्त बन पड़ा है । नि.य. कुलकर्णी, मढेऱ्कर, मंगेश पाँडगाँवकर, विंदा करंदीकर, दिलीप पुरूषोत्तम चित्रे, ज्योतिबा फुले, बाबा आमटे की मराठी कविताओं का हिन्दी व नारायण महाशब्दे की अंग्रेजी कविताओं का भी हिन्दी अनुवाद किया है ।
यहाँ तक की अंतर्राष्ट्रीय कवि इन्जिलाइन गिमले (न्यूयार्क) की अंग्रेजी कविता का हिन्दी अनुवाद भी किया है ।
चकल्लस (हास्य समागम, मुंबई) व टेपा सम्मेलन (उज्जैन) में भी टेपा सम्मान से सम्मानित हुए हैं ।
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