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माँ पर नहीं लिख सकता कविता
माँ के लिए संभव नहीं होगी मुझसे कवित
अमर चींटियों का एक दस्ता मेरे मस्तिष्क में रेंगता रहता है
माँ वहाँ हर रोज़ चुटकी-दो चुटकी आटा डाल देती है
मैं जब भी सोचना शुरू करता हूँ
यह किस तरह होता होगा
घट्टी पीसने की आवाज़ मुझे घेरने लगती है
और मैं बैठे-बैठे दूसरी दुनिया में ऊंघने लगता हूँ
जब कोई भी माँ छिलके उतार कर
चने, मूंगफली या मटर के दाने नन्ही हथेलियों पर रख देती है
तब मेरे हाथ अपनी जगह पर थरथराने लगते हैं
माँ ने हर चीज़ के छिलके उतारे मेरे लिए
देह, आत्मा, आग और पानी तक के छिलके उतारे
और मुझे कभी भूखा नहीं सोने दिया
मैंने धरती पर कविता लिखी है
चन्द्रमा को गिटार में बदला है
समुद्र को शेर की तरह आकाश के पिंजरे में खड़ा कर दिया
सूरज पर कभी भी कविता लिख दूंगा
माँ पर नहीं लिख सकता कविता
चंद्रकांत देवताले (अंग्रेज़ी: Chandrakant Devtale, जन्म- 7 नवंबर, 1936, जौलखेड़ा, बैतूल, मध्य प्रदेश; मृत्यु- 14 अगस्त, 2017) प्रसिद्ध भारतीय कवि एवं साहित्यकार थे। वह देश की 24 भाषाओं में विशेष साहित्यिक योगदान के लिए प्रख्यात साहित्यकारों में शामिल थे। चंद्रकांत अपनी कविता की सघन बुनावट और उसमें निहित राजनीतिक संवेदना के लिए जाने जाते थे। वे 'दुनिया का सबसे गरीब आदमी' से लेकर 'बुद्ध के देश में बुश' तक पर कविताएं लिखते थे।
7 नवंबर, 1936 को मध्य प्रदेश के बैतूल जिले में जन्मे चंद्रकांत देवताले अपनी कविता की सघन बुनावट और उसमें निहित राजनीतिक संवेदना के लिए जाने जाते रहेंगे. उन्होंने अपनी कविता की कच्ची सामग्री मनुष्य के सुख दुःख, विशेषकर औरतों और बच्चों की दुनिया से इकट्ठी की थे. चूंकि बैतूल में हिंदी और मराठी बोली जाती है, इसलिए उनके काव्य संसार में यह दोनों भाषाएं जीवित थीं. मध्य भारत का वह हिस्सा जो महाराष्ट्र से छूता है, उसमें मराठी भाषा पहली या दूसरी भाषा के रूप में बोली जाती रही है. बैतूल भी ऐसी ही जगह है. अपने प्रिय कवि मुक्तिबोध की तरह देवताले मराठी से आंगन की भाषा की तरह बरताव करते थे. यह उनकी कविताओं में बार-बार देखा जा सकता है.
देवताले इंदौर में रहे और इंदौर को अपनी सार्वदेशिकता (कास्मोपोलिटिनिज़म) के कारण मध्य भारत का मुंबई कहा जाता है. यह सार्वदेशिकता उनकी कविताएं भी बयान करती हैं. देवताले काफी पढ़े लिखे इंसान थे. उन्होंने कवि गजानन माधव मुक्तिबोध पर पीएचडी की थी और इंदौर के एक कॉलेज में पढ़ाते थे. उन्हें ढेर सारे पुरस्कार मिले थे जिसमें अंतिम महत्वपूर्ण पुरस्कार 2012 का साहित्य अकादेमी पुरस्कार था. यह उनके कविता संग्रह ‘पत्थर फेंक रहा हूं’ के लिए दिया गया था.
देवताले जी की कविता में समय और सन्दर्भ के साथ ताल्लुकात रखने वाली सभी सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक प्रवृत्तियाँ समा गई हैं। उनकी कविता में समय के सरोकार हैं, समाज के सरोकार हैं, आधुनिकता के आगामी वर्षों की सभी सर्जनात्मक प्रवृत्तियां इनमें हैं। उत्तर आधुनिकता को भारतीय साहित्यिक सिद्धांत के रूप में न मानने वालों को भी यह स्वीकार करना पड़ता है कि देवताले जी की कविता में समकालीन समय की सभी प्रवृत्तियाँ मिलती हैं। सैद्धांतिक दृष्टि से आप उत्तरआधुनिकता को मानें या न मानें, ये कविताएँ आधुनिक जागरण के परवर्ती विकास के रूप में रूपायित सामाजिक सांस्कृतिक आयामों को अभिहित करने वाली हैं। देवताले जी को उनकी रचनाओं के लिए अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है। इनमें प्रमुख हैं- माखन लाल चतुर्वेदी पुरस्कार, मध्य प्रदेश शासन का शिखर सम्मान। उनकी कविताओं के अनुवाद प्रायः सभी भारतीय भाषाओं में और कई विदेशी भाषाओं में हुए हैं। देवताले की कविता की जड़ें गाँव-कस्बों और निम्न मध्यवर्ग के जीवन में हैं। उसमें मानव जीवन अपनी विविधता और विडंबनाओं के साथ उपस्थित हुआ है। कवि में जहाँ व्यवस्था की कुरूपता के खिलाफ गुस्सा है, वहीं मानवीय प्रेम-भाव भी है। वह अपनी बात सीधे और मारक ढंग से कहते हैं। कविता की भाषा में अत्यंत पारदर्शिता और एक विरल संगीतात्मकता दिखाई देती है।
साहित्यिक परिचय
बैतूल में हिंदी और मराठी बोली जाती है, इसलिए उनके काव्य संसार में यह दोनों भाषाएं जीवित थीं। मध्य भारत का वह हिस्सा जो महाराष्ट्र से छूता है, उसमें मराठी भाषा पहली या दूसरी भाषा के रूप में बोली जाती रही है। बैतूल भी ऐसी ही जगह है। अपने प्रिय कवि मुक्तिबोध की तरह देवताले मराठी से आंगन की भाषा की तरह बर्ताव करते थे। यह उनकी कविताओं में बार-बार देखा जा सकता है। वह इंदौर में रहे और इंदौर को अपनी सार्वदेशिकता के कारण मध्य भारत का मुंबई कहा जाता है। यह सार्वदेशिकता उनकी कविताएं भी बयान करती हैं। देवताले काफी पढ़े लिखे इंसान थे।
देवताले की कविताओं में जूता पॉलिश करते एक लड़के से लेकर अमेरिका के राष्ट्रपति तक जगह पाते हैं। वे 'दुनिया के सबसे गरीब आदमी' से लेकर 'बुद्ध के देश में बुश' तक पर कविताएं लिखते थे लेकिन सुखद यह है कि कविता के इस पूरे फैलाव में कहीं भी उनके गुस्से में कमी नहीं आती। वे अपने गुस्से को सर्जनात्मक बनाकर उससे भूख का निवारण चाहते हैं। 'अंधेरे की आग में कब से/ जल रही है भूख/ फिर भी नहीं उबल रहा/ गुस्से का समुद्र/ कब तक? कब तक?' उनकी कविता का शीर्षक है। देवताले वंचितों की महागाथा के कवि थे। उन्होंने अपनी रचनाओं में दलितों, वंचकों, आदिवासियों, शोषितों को जगह दी। उनकी कविताओं में न्याय पक्षधरता के साथ साथ ग्लोबल वार्मिंग जैसी आधुनिक चुनौतियों पर भी विमर्श दिखता है।
मुख्य कृतियाँ
कविता संग्रह : हड्डियों में छिपा ज्वर, दीवारों पर खून से, लकड़बग्घा हँस रहा है, रोशनी के मैदान की तरफ, भूखंड तप रहा है, आग हर चीज में बताई गई थी, पत्थर की बैंच, इतनी पत्थर रोशनी, उसके सपने, बदला बेहद महँगा सौदा, पत्थर फेंक रहा हूँ
आलोचना : मुक्तिबोध : कविता और जीवन विवेक
संपादन : दूसरे-दूसरे आकाश, डबरे पर सूरज का बिम्ब
अनुवाद : पिसाटी का बुर्ज (दिलीप चित्रे की कविताएँ, मराठी से अनुवाद)
सम्मान
मुक्तिबोध फेलोशिप, माखनलाल चतुर्वेदी कविता पुरस्कार, मध्य प्रदेश शासन का शिखर सम्मान, सृजन भारती सम्मान, कविता समय पुरस्कार
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