‘तोड़ती पत्थर’ कविता की व्याख्या
वह तोड़ती पत्थर ;
देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर
वह तोड़ती पत्थर
नहीं छायादार
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार ;
श्याम तन भर बंधा यौवन,
नत-नयन, प्रिय-कर्म-रत मन,
गुरु हथौड़ा हाथ,
करती बार-बार प्रहार
सामने तरु-मालिका अट्टालिका, प्राकार | (1)
चढ़ रही थी धूप,
गर्मियों के दिन,
दिवा का तमतमाता रूप,
उठी झुलसाती हुई लू,
रुई चिनगी छा गई ;
प्राय: हुई दुपहर
वह तोड़ती पत्थर | (2)
देखते देखा, मुझे तो एक बार
उस भवन की ओर देखा, छिन्न-तार ;
देख कर कोई नहीं,
देखा मुझे उस दृष्टि से,
जो मार खा रोई नहीं ;
सजा सहज सितार,
सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार |
एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर,
ढुलक माथे से गिरे सीकर,
लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा –
“मैं तोड़ती पत्थर” | ( 3)
प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक में संकलित कविता “तोड़ती पत्थर” से लिया गया है | इस कविता के रचयिता प्रसिद्ध छायावादी कवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला‘ जी हैं | इस कविता में कवि ने इलाहाबाद की सड़क के किनारे तपती धूप में पत्थर तोड़ती हुई एक श्रमिक महिला का अत्यंत मार्मिक चित्रण किया है |
व्याख्या – कवि कहता है कि उसने इलाहाबाद के पथ पर एक श्रमिक महिला को पत्थर तोड़ते हुए देखा था | वह नारी तपती हुई भयंकर धूप में पत्थर तोड़ रही थी | जिस स्थान पर वह पत्थर तोड़ रही थी उस स्थान पर कोई छायादार पेड़ नहीं था जिसकी छाया का वह आश्रम ले सकती | उसका शरीर साँवला और स्वस्थ था | वह भरपूर यौवन से युक्त थी | उसकी आंखें नारी सुलभ लज्जा से झुकी हुई थी और वह पूर्ण निष्ठा से अपने प्रिय कार्य अर्थात पत्थर तोड़ने में निमग्न थी | उसके हाथ में एक भारी हथौड़ा था जिससे वह पत्थरों पर बार-बार चोट कर रही थी | जहां वह कार्य कर रही थी उसके सामने पेड़ों की पंक्ति, विशाल भवन एवं उनकी चारदीवारी थी | (1)ग्रीष्म ऋतु का समय था | दिन चढ़ने के साथ-साथ धूप भी तेज होती जा रही थी | दिन अधिक गर्मी के कारण तमतमा रहा था |शरीर को झुलसा देने वाले गर्म हवाएँ चल रही थी | पृथ्वी गर्मी के कारण ऐसे जल रही थी मानो रुई जल रही हो | लगभग दोपहर का समय हो गया था | भयंकर गर्मी पड़ रही थी ऐसे में वह श्रमिक महिला पत्थर तोड़ने का कार्य कर रही थी | (2)
कवि कहता है कि इलाहाबाद के पथ पर पत्थर तोड़ने का कार्य कर रही उस युवती ने जब मुझे अपनी ओर ताकते हुए देखा तो उसने बड़े दु:ख और हताशा के साथ एक बार सामने खड़े भवन की ओर देखा | उसने उस भवन को ऐसे देखा जैसे कुछ ना देख रही हो | उसने मुझे देखा तो मुझे उसकी दृष्टि में वह भाव नजर आया जैसे एक भय-ग्रस्त बच्चा मार खाने पर भी भय से रोता नहीं है | अपने प्रति सहानुभूति की भावना को देखकर उसकी भावनाओं की वीणा के तार झंकृत हो उठे और ऐसी ध्वनि सुनाई दी जो मैंने आज तक नहीं सुनी थी | कहने का भाव यह है कि कवि ने पीड़ा का ऐसा स्वर कभी नहीं सुना था | तभी वह युवती काँप उठी और उसके माथे से पसीने की बूंदे ढुलक कर नीचे गिर गयी | तत्पश्चात वह युवती फिर से अपने कार्य में तल्लीन हो गई | उसे पत्थर तोड़ते हुए देखकर ऐसा आभास हो रहा था मानो वह कह रही हो कि मैं पत्थर तोड़ने वाली हूँ ; यही मेरा कार्य है | कहने का अभिप्राय यह है कि वह पत्थर तोड़ने वाली स्त्री पत्थर तोड़ना ही अपनी नियति मान चुकी है |
‘तोड़ती पत्थर’ कविता का प्रतिपाद्य / उद्देश्य या निहित संदेश
‘तोड़ती पत्थर’ निराला जी की प्रसिद्ध प्रगतिशील कविता है | इस कविता में कवि ने छायावादी आवरण से बाहर निकल कर सर्वहारा वर्ग का मार्मिक वर्णन किया है | प्रस्तुत कविता में नारी का वर्णन एक सौंदर्य-उपकरण या परंपरागत नारी सुलभ गुणों की महिमा के रूप में न करके एक पीड़ित, शोषित वर्ग के प्रतिनिधि के रूप में किया गया है | निराला जी ने इस कविता में इलाहबाद के पथ पर ग्रीष्मकालीन दुपहरी में कार्यरत पसीने से तरबतर एक मजदूरिन का कारुणिक शब्द-चित्र प्रस्तुत किया है | एक तरफ जहाँ इस कविता में महलों में ऐशोआराम का जीवन जी रहे धनाढ्य वर्ग की ओर संकेत किया गया है वहीं दूसरी ओर झुलसती धूप में पत्थर तोड़ती नारी की दयनीय दशा का मार्मिक चित्र अंकित किया गया है | वस्तुत: इस कविता का मुख्य उद्देश्य नारी के उस रूप को उजागर करना है जो उस समय तक साहित्य का विषय कभी न बन पाया | केवल नारी की सुंदरता का वर्णन या उसके मातृ-सुलभ रूप, पतिव्रता रूप का वर्णन ही साहित्य में मिलता था | परन्तु निराला जी ने प्रस्तुत कविता में नारी के जिस रूप का वर्णन किया है, वह साहित्य के क्षेत्र में नविन प्रयोग है | संभवतः इस प्रकार की कविताओं की रचना के माध्यम से सड़कों और खेतों में काम कर रही नारी के दुःखों को अपने साहित्य में स्थान देकर लोगों के मन में उनके प्रति सहानुभूति जगाना ही निराला जी का मुख्य उद्देश्य था |
No comments:
Post a Comment