डॉ. विद्या बिन्दु सिंह का जन्म 02 जुलाई सन 1945 ई. में उत्तर प्रदेश के जिले
फैजाबाद के अंतर्गत जैतपुर, सोनावा में हुआ। आपकी माता प्राणदेवी और पिता देवनारायण
सिंह जी थे। एक सामान्य और संस्कार संपन्न परिवार में जन्मी विद्या बिन्दु जी आज
हिंदी साहित्य जगत के लिए एक सुपरिचित नाम हैं। शांत, सहज, सरल लेकिन साहित्य और
लेखकीय जिम्मेदारियों के प्रति एकदम सजग। कविता, कहानी, निबंध, उपन्यास, संस्मरण और
हाइकू तथा क्षणिकाएँ जैसी विधाओं में आपकी लेखनी सतत चल रही है। `बखरी के लोग'
`अपनी जमीन', `बाघा बाबा का चौर' आपके प्रसिद्ध कहानी संग्रह हैं। `वधूमेध'
`अमरवल्लरी', `कॉटों का वन' `वापस लौटे नीड़' `पल नि' और `तुमसे ही कहना है' आपके
प्रमुख कविता संग्रहों में से हैं। `अंधेरे के बीच' `वे बेटियाँ' और `फूल कली' आपके
प्रमुख उपन्यास हैं। आपके द्वारा लिखित नाटकों में `काकी रोना मत' और `अपना सब
संसार' प्रमुख है। आपकी कुल प्रकाशित पुस्तकों की संख्या 90 से अधिक है। `दिन-दिन
पर्व' नामक आपकी पुस्तक समीक्षकों के बीच चर्चा का विषय बनी रही। इधर `राम काव्य'
नामक आपकी कुछ पुस्तकें `बुक-ट्रस्ट ऑफ इंडिया' द्वारा प्रकाशित हुई हैं। अवधी लोक
साहित्य बाल साहित्य, प्रौढ़ साहित्य, नवसाक्षर साहित्य और बाल व्याकरण से संबद्ध
आपकी दर्जनों पुस्तके प्रकाशित हो चुकी हैं।
जीवन के तमाम उतार-चढ़ावो को पूरे
धैर्य, साहस संबल के साथ आत्मसाथ करते हुए आपने साहित्य सृजन के परिमल-विमल-प्रवाह
को निरंतरता प्रदान की है। आप का साहित्य राष्ट्रीयता एवम् मानवियता के भावों से
ओत-प्रोत है। राष्ट्रीय-सामाजिक जागरण की चेतना को ही आपने अपने कथा एवम् काव्य
साहित्य का विषय बनाया। वह काव्य या साहित्य जिसके अंतर्गत जीवन की शक्ति क्षीण
होती है, उसका आपने कभी भी समर्थन नहीं किया । आप ने अपने साहित्य के माध्यम से
राष्ट्रीय-सांस्कृतिक चेतना के विकास को बल प्रदान किया। भारतीय परंपराएँ,
तीज-त्योहार, रीति-रिवाज और धार्मिक मान्यताओं को आपने अपने साहित्य के माध्यम से
सामने लाया। नारी मन की व्यथा, उसके सपने, उसकी आशाएँ और उसकी पीड़ा तथा घुटन को भी
आपने विस्तारपूर्वक विवेचित किया है। अवधी लोक साहित्य पर भी आपने महत्त्वपूर्ण
शोध-पूरक कार्य किया है। देश-विदेश की अनेकों पत्र-पत्रिकाओं से संबद्ध हैं। कई
महत्त्वपूर्ण पदों पर कार्यरत रहते हुए, घर-परिवार की जिम्मेदारियों को
कुशलतापूर्वक निभाते हुए आपने अपनी साहित्यिक गतिविधियों को सतत जारी रखा हुआ है।
दुख और अवसाद के क्षणों में भी साहित्य ही आपका संबल रहा। पति कृष्ण प्रताप सिंह की
मृत्यु के बाद आप अंदर से टूट चुकी थीं। चारों तरफ निराशा के बादल ही छाये थे। इन
दिनों जब मैं `विद्या दीदी' से मिला तो मेरी भी आँखें भर आयीं। `हिन्दी की बिन्दी'
वाली अपनी `विद्या दीदी' को पहली बार बिना सिंदूर और बिन्दी के देखना बड़ा कष्टकर
रहा। लखनऊ में उनके आवास से लौटते हुए मन भारी हो गया था। मैं उनसे कुछ कह नहीं
पाया था, औपचारिकता वश दुख जताने वाली तो कोई बात ही नहीं थी, वैसे भी मेरे संबंध
औपचारिक नहीं होते। मुंबई वापस आकर कई बार लगा की `विद्या दीदी' से बात करूँ, पर
क्या बात करूँ? यही नहीं समझ पा रहा था। वैसे भी 2-3 महीने में कभी-कबार ही तो उनसे
बात होती है। उनके स्वास्थ्य, नई रचनाओं और साहित्यिक यात्राओं के संबंध में ही।
इसबार तो समझ ही नहीं पा रहा था कि क्या बात करूँ? फिर एक दिन अचानक मोबाईल पर
`दीदी' का ही फोन आया। मन हर्ष से भर गया। दीदी ने मेरे लेखन, नौकरी, परिवार और
कल्याण में रह रही अपनी छोटी बहन `अन्नू' के बारे में देर तक बात करती रहीं। फिर
उन्होंने अपनी नई किताबो ो बारे में बताया और बोलते-बोलते भावुक होकर बोली ``अब
लिखना-पढ़ना ही मेरी दवा है। इनसे ही स्वास्थ्य अच्छा रहेगा।.... और न कोई तो इनका
ही बड़ा सहारा भी।'' दीदी की बात एकदम सच साबित हुई।
अब जब दीदी से मिलता हँू तो
लगता है कि सचमुच साहित्य ने ही `विद्या दीदी' को सँभाल लिया। `विद्या दीदी' का
समग्र साहित्य सच्चाई और ईनामदारी के लिए लड़नेवाले रचनाकारों के भावबोध को अपने
अंदर समेटे हुए है। पंक्ति में सबसे अंत में, हाशिये पर खड़े आम आदमी की अभिव्यक्ति
को आपने हमेशा ही महत्त्वपूर्ण माना है। आज के इस बाजारवाद, भ्रष्टाचार,
लालफीताशाही और भाई-भतीजावाद के युग में लोकतंत्र की जगह लूटतंत्र के खिलाफ खड़े
होने का अदम्य साहस भी आपने अपने साहित्य के माध्यम से दिखाया है। मंच पर आपको
बोलते हुए सुनना एक सुखद अनुभूति होती है। `सुभद्राकुमारी चौहन स्वर्ण पदक',
साहित्य महोपाध्याय सम्मान', `साहित्य श्री सम्मान', `हिन्दी की बिन्दी सम्मान',
`राष्ट्रभाषा रत्न' सम्मान, `महादेवी वर्मा सम्मान',`जायसी सम्मान' और `विश्वभारती
सम्मान' जैसे न जाने कितने की सम्मान के स्मृति चिन्हों से आपका घर भरा हुआ है। जो
इस बात का प्रमाण है कि आपकी साहित्यिक प्रतिभा को समय-समय पर साहित्य जगत ने
स्वीकार करते हुए आपकी निष्ठा, ईमानदारी और कर्मठता को नमन किया है। गढ़वाल, लखनऊ
और पूणे विद्यापीठ से आपके साहित्य पर कई शोध कार्य हुए भी हैं और वर्तमान में हो
भी रहे हैं। पूण विद्यापीठ से संलग्न सी.टी. बोरा महाविद्यालय के हिंदी
विभागाध्यक्ष डॉ. ईश्वर पवार जी ने हाल ही मुझे बताया कि उनके मार्गदर्शन में उनकी
दो छात्राएँ एम.फिल का कार्य बिछा दीदी के साहित्य पर कर रही है। देशभर के कई अन्य
विश्वविद्यालयों से भी आपके साहित्य पर शोध कार्य किये जाने की जानकारी इंटरनेट के
माध्यम से मिली है।
लखनऊ और मुंबई आकाशवाणी से आपके साहित्य पर कई `लेख' भी
ब्रॉडकास्ट हो चुके हैं। देश-विदेश की आपने अनेकों यात्राएँ की हैं। मॉरीशस,
तूरीनामा, नार्वे, लंदन और कई खाड़ी एवम् पश्चिमी देशों में आयोजित होनेवाले
साहित्यिक आयोजनों में आप सहभागी होती रही हैं। आज की व्यवस्था में चापलूसी और जी
हजूरी मानों भ्रष्ट व्यवस्था का एक अंग ही बन गया है। लेकिन `विद्या बिन्दु जी के
व्यक्तित्व और कृतित्व को देखकर साफ पता चलता है कि आपने न केवल पानी में रहकर
मगरमच्छ से बैर लिया अपितु अपनी सच्चाई और कर्मठता के दम पर कई मगरमच्छों को चारो
खाने चित भी कर दिया। अभिव्यक्ति के अपने खतरे होते हैं, पर इन खतरों से आप कभी
घबरायी नहीं। अपने आदर्शो, सिद्धांतों और नैतिक मूल्यों के कारण जहाँ एक तरफ आपके
विरोध में खेमा बना तो दूसरी तरफ आपके प्रशंसकों की तादाद भी लगातार बढ़ती रही।
निम्न भाव के लोगों को तो शुद्ध दलाली में ही दिलचस्पी होती है ऐसे लोगों का आपके
विरोध में खडा़ होना सहज भी था। संबंधों की बत्तीसी के बीच बाहरवाला कर्कश लगता ही
है। फिर भ्रष्ट आचरण और नैतिक रूप से पतित लोगों की आज के इस आत्मकेन्द्रिय युग में
कोई कमी भी तो नहीं है। लेकिन पंडित विद्यानिवास मिश्र जी जैसे विद््वानों के आशीष
और मार्गदर्शन ने आपको हमेशा ही ऊर्जा और संबल दिया। पंडित जी आपके प्रशंसकों में
प्रमुख रहे। आपका साहित्य सहज-सरल-सरस और मधुर है। जहाँ-जहाँ जरूरत रही वहाँ पर
आपने व्यंग्य का चाबुक भी चलाया। औरतों के अस्तित्त्व और अस्मिता की लड़ाई में भी
आपने अपने साहित्य के माध्यम से भरपूर योगदान दिया।
आज के समय में भले ही कुछ औरतों
ने अपने अधिकारों को हालिस कर लिया हो, लेकिन उनका जीवन अभी भी तमाम मुश्किलों और
यातनाओं से भरा हुआ है। खेल से बाहर रखकर उन्हें खेल में हराने की प्रथा अभी तक बनी
हुई है। आज भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो औरतों को उनके उस लच्छे की तरह समझते
हैं, जिसके बारे में यह विश्वास बना रहता है कि वह खुलने पर सिर्फ और सिर्फ उलझेगा।
अत: उन्हें सुलझने का कभी मौका ही नहीं दिया जाता। आज भी औरतें उस आटे की तरह हैं
जो आपने ही आसुओं और भावों में घुलती रहती हैं। स्त्री-विमर्श को लेकर जितना भी
साहित्य लिखा जा रहा है, उसमें विद्या बिन्दुजी का साहित्य भी सहजता से शामिल किया
जा सकता है। आपकी कई काव्य पुस्तकें, उपन्यास और नाटक नारी मन की वेदना और संघर्ष
को ही लेकर लिखे गये हैं। अवधी लोक साहित्य में से अनेकों गीतों को खोजकर विद्या जी
ने संग्रहित करने का कार्य है। इन गीतों में नारी मन की पीड़ा को जिस तरह से
चित्रित किया गया है। वह साहित्य में अनूठा है। आपके स्त्री विषयक लेखन की सबसे
बड़ी विशेष्ता यह है कि आप स्त्रीवादी अति कटु और अति उग्र विमर्शो से बचते हुए
उसके भारतीय परिप्रेक्ष्य को अधिक महत्त्व देती हुई दिखायी पड़ती है। यहाँ पर आप
कथाकार अमरकांत की विचार शैली के बहुत करीब दिखायी पड़ती है। सड़ी-गली मान्यताओं और
परंपराओं से अपने आप को काटते हुए राष्ट्रीयता की मूल चेतना से आप हमेशा जुड़ी रही
है। यह आपकी प्रतिभा दृष्टि का ही परिणाम है कि आपने अपने साहित्य को एकतरफा या
एकांगी नहीं बनने दिया। `विमर्शवाद' के तथाकथित चौह ी मं आपने अपनी लेखनी को
संकुचित नहीं होने दिया। सहित के भाव के साथ आपने उदार रूप से उदात्त साहित्य की
रचना को जो कि आपके व्यक्तित्व के सर्वथा अनुकूल भी है।
हिन्दी साहित्य जगत में आप
एक लोकप्रिय, ऊर्जावान, यशस्वी, तेजस्वी एवम राष्ट्रीय-सामाजिक मूल्यों को गति
देनेवाली `प्रगतिशील' लेखिका मानी जाती हैं। पूर्ण रूप से संपन्न, स्वतंत्र, उदार,
संस्कारवान और विश्वबंधुत्व की भावना से भरे हुए भारतीय समाज का आपका सपना है।
भारतीय संस्कृति के प्राचीन और समीचीन समीकरण के ताने-बाने में समन्वय, समता,
समानता और मानवता को आप प्रमुखता देती हैं। भारत वर्ष को आज जिस विश्वास, आशा,
आदर्श, धैय और जीवन-दर्शन की आवश्यकता है, उसकी झलक आपके साहित्य में मिलती है।
निराशा, कुंठा, दैन्य, आत्मग्लानि, हिंसा, आत्महीनता इत्यादी भाव बोधों से समाज को
जागृत कर सके। उसी चिंगारी की खोजना रहता है जो आज के सुप्त समाज को जागृत कर सके।
उसी चिंगारी की खोज हमें अपनी सांस्कृतिक विरासत, अपने अतीत, अपनी जड़ों में करना
होता हैं। यही कारण है कि आप बार-बार लोक साहित्य की तरफ मुड़ती है। काम, क्रोध,
मद, लोभ, और मात्सर्य जैसे विकार मानव मन को क्लुषित करते हैं। दया, प्रेम, करूणा
इत्यादि भाव मानवीय गुणों का विकास करते हैं। आपके समग्र साहित्य को ध्यान से पढ़ने
पर ही यह स्पष्ट होता है कि मानवीय संभावना के प्रसार के हर साहित्यिक आयाम में
यज्ञ की आहुति की तरह दया और करूणा के भावों को आपने प्रेषित किया है। आप के
साहित्य में भाषा परिष्कार साफ दिखायी पड़ता है।
भाषा विज्ञान में दिलचस्पी
रखनेवाले विद्ववान इस बात को आसानी से समझ लेंगे। आप जहाँ व्यवस्था के नकारेपन पर
चोट करती हैं, वहाँ भी तोष कम और होश अधिक दिखायी पड़ता है। आपके अभिव्यक्ति के
केन्द्र और उसकी सीमा पर भी मानवीय वृत्ति ही है। ये वही वृत्तियाँ हैं जो आपके
साहित्यिक सौंदर्यबोध को निखारती हैं भारत एक वैभवशाली राष्ट्र रहा है।
ज्ञान-विज्ञान-कला-दर्शन-साहित्य-शिल्प लगभग सभी क्षेत्रों में हमारा कोई सानी नहीं
रहा है। `मानवतावाद' और `राष्ट्रवाद' के जिस उदात्त स्वरूप को लेकर हमारे वेद-पुराण
आगे बढ़े, उनका पूरी दुनिया की सभ्यता में कोई मुकाबला ही नहीं है। यह सही है कि
समय के साथ-साथ कई तरह के आडंबर और शोषण धर्म के नाम पर होते रहे हैं, लेकिन हमारी
अस्मिता की पहचान भी हमारे धर्म और राष्ट्र से जुड़ी है। हमें अपनी अस्मिता की
अभिव्यक्ति और आत्मनिर्भरता को अपने मौलिक एवम जनउपयोगी रचना कर्म द्वारा बनाये
रखना होगा। डॉ. विद्या बिन्दु सिंह जी का समग्र साहित्य उपर्युक्त बातों का ही
जीवंत और ठोस प्रमाण है। दूसरों के विचारों को यदि हम शिलाधर्मिता के रूप में
स्वीकार करते रहेंगे तो हमारी मौलिकता कभी पनप ही नहीं पायेगी। शायद इसी बात को
ध्यान में रखकर किसी ने लिखा है कि: ``अपनी तस्वीर में अपना रंग जरूरी है। जैसा भी
हो, अपना ढंग जरूरी है।'' ``जो रचेगा, वही बचेगा वाली उक्ति एकदम सही लगती है। यहाँ
बचने का अभिप्राय सिर्फ व्यक्ति से संबंधित न होकर पूरी की पूरी सभ्यता, संस्कृति
और मानवता की तरफ इशारा कर रही है। परिवर्तन की इच्छा और नवीनता के आग्रह में कोई
बुराई नहीं है, किन्तु एक खास विचारधारा के चश्मे से अपनी हजारों-लाखें वर्षो की
सभ्यता और संस्कृति को झुठलाना किसी भी तरीके से आधुनिक बोध का परिचायक नहीं हो
सकता। इस बात को विद्या बिंदु जी ने अच्छी तरह समझा है।
आप का साहित्य सही मायनों
में राष्ट्रीय एकता, अखंडता और समप्रभुता का परिचायक है। आपके विचारों में नये और
पुराने का समन्वय है। आप का विचार ठहरा हुआ नहीं अपितु गतिशील जल की तरह है। इसी
संदर्भ में मैंने आपको `प्रगतिशील' लेखिका भी कहा। गर्हित कुत्सित परंपरागत मूल्यों
की वर्तमान युग में अनुपयोगिता को भी डॉ. विद्या बिन्दु सिंह ने अच्छी तरह समझा।
यही कारण है कि हम उनके साहित्य को पुराणपंथी या प्राचीनता के आग्रह व मोह से युक्त
नहीं समझते। सामाजिक हित की प्रतिज्ञाओं और समसामयिक साहित्यिक प्रवृत्तियों के बीच
ताल-मेल कर साहित्य रचने का कार्य आप करती रही हैं।
साहित्य की लगभग सभी विधाओं में
आपने लेखन कार्य किया है। सामाजिकता की झंझा और आदर्शो की संध्या के संधिकाल में
राष्ट्रीय-मानवीय-चेतना को जो शंखनाद आपने किया है वह आत्मिक शुद्धता, सहिष्णुता और
मानवता की साहित्यिक गाथा है। आपके काव्य में अध्यांतरिकता, आवेग दीप्ति,
सहजस्फुरण, रागात्मकता, संगीतात्मकता, हार्दिकता, तीऋाता तथा कलात्मकता साफ दिखायी
पड़ती है। आपका गद्य साहित्य विश्वसनीय, लोकोन्मुखी, जनचेतना, राष्ट्रधर्म, मानवीय
विचारों का वाहक है। साहित्य के जिस यथार्थ को पाने, पहचानने, जानने, मानने, पकड़ने
और समझने की कोशिश लगातार होती रही है, उसी कसौटी में हम डॉ. विद्या बिन्दु सिंह के
समग्र साहित्य को रख सकते हैं। व्यक्तिगत संबंधों के कारण हो सकता है मैं `कुछ'
अतिशयोक्तिपूर्ण कह गया हूँ, लेकिन `बहुत कुछ' वही सत्य है जो सर्व विदित है।
डॉ.
मनीष कुमार मिश्रा
हिंदी व्याख्याता के.एम.अग्रवाल महाविद्यालय
कल्याण (पश्चिम),
महाराष्ट्र
manishmuntazir@gmail.com
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