आधुनिक हिंदी कविता में खड़ीबोली के पहले मुकम्मल कवि अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ की आज जयंती है। उनका जन्म 15 अप्रैल 1865 को आजमगढ़ जिले के निजामाबाद में हुआ था।
*सिंह और उपाध्याय*
हरिऔध जी का नाम बचपन से ही मुझे परेशान करता था। वह अपने नाम में ‘सिंह’ भी लिखते हैं और ‘उपाध्याय’ भी! कुछ समझ में नहीं आता था। उच्च कक्षा में अध्ययन के लिए पहुंचा तब ज्ञात हुआ कि वह वस्तुतः ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए थे और उपाध्याय थे। उनके बाबा ने किसी कारणवश सिख धर्म अपना लिया था और अपने नाम के साथ ‘सिंह’ लिखने लगे थे, किंतु अपने कुलनाम ‘उपाध्याय’ का त्याग भी नहीं किया। इसीलिए हरिऔध जी ‘अयोध्यासिंह उपाध्याय’ ऐसा पूरा नाम लिखा करते थे।
*हरिऔध*
‘अयोध्यासिंह उपाध्याय’ के साथ जुड़ा हुआ ‘हरिऔध’ शब्द किसी भी शब्दकोश में नहीं मिलता। इस शब्द का अर्थ जानने के लिए मैं बहुत जिज्ञासु था। कालान्तर में ज्ञात हुआ कि वस्तुतः ‘हरिऔध’ कवि द्वारा स्वनिर्मित शब्द है। ‘हरि’ का अर्थ है- सिंह। ‘औध’ शब्द ‘अवध’ का तद्भव है। अवध अर्थात ‘अयोध्या’। इस प्रकार ‘हरिऔध’ का अर्थ है- ‘अयोध्यासिंह’। ब्रजभाषा में काव्य रचना के लिए उन्होंने ‘हरिऔध’ नाम अपनाया था।
*संक्षिप्त परिचय*
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पिता- भोलासिंह उपाध्याय
माता- रुक्मिणी देवी
पत्नी- अनंत कुमारी
मैट्रिक- निजामाबाद के स्कूल से 1879
विवाह- 1882
अध्यापक- 1884
नॉर्मल परीक्षा- 1887
कानूनगो परीक्षा- 1889
1889 में कानूनगो और कालांतर में सदर कानूनगो
सेवानिवृत्ति- 1923
*मालवीय जी के अनुरोध से काशी हिंदू विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में अवैतनिक अध्यापन- मार्च 1924 से जून 1941*
निधन- 16 मार्च 1947
*बहुभाषाविद्*
हरिऔध जी हिंदी, संस्कृत, उर्दू, अंग्रेजी, फारसी, पंजाबी, मराठी, बांग्ला आदि अनेक भाषाओं के जानकार थे।
*कविसम्राट*
1914 ईस्वी में प्रकाशित खड़ीबोली हिंदी के प्रथम महाकाव्य ‘प्रियप्रवास’ के कारण हिंदी संसार ने आपको ‘कविसम्राट’ की उपाधि से विभूषित किया।
*भोर की किरण*
प्रथम रचना ‘कृष्णशतक’ 1892 में प्रकाशित हुई, जब वह मात्र 17 वर्ष के थे।
*कबीर वचनावली*
कबीर विषयक पहली स्वतंत्र पुस्तक का हिंदी में निर्माण हरिऔध जी ने ही किया था। 1916 में प्रकाशित ‘कबीर वचनावली’ कबीर पर लिखी गई हिंदी में प्रथम पुस्तक है। इस पुस्तक की लंबी भूमिका में उन्होंने कबीर के जीवन, सृजन, दर्शन और उनके भक्त तथा समाज सुधारक रूप का बहुत सारगर्भित चित्रण किया है।
*प्रियप्रवास*
उन्होंने ‘प्रियप्रवास’ और ‘वैदेही वनवास’ नामक दो महाकाव्य भी लिखे हैं। ‘प्रियप्रवास’ श्रीकृष्ण के व्रज से मथुरा जाने की कथा को 17 सर्गों में मार्मिक ढंग से प्रस्तुत करता है। इस महाकाव्य के षष्ठ सर्ग में राधा द्वारा पवन को दूती बनाकर कृष्ण के पास संदेश भेजने की नवीन कल्पना का सृजन कवि ने किया है। इस सर्ग में कृष्ण के प्रति राधा के प्रेम और विरह का मार्मिक चित्रण कवि द्वारा किया गया है।
*वैदेही वनवास*
1940 में प्रकाशित ‘वैदेही वनवास’ रामकथा पर आधारित महाकाव्य है। इस महाकाव्य के 18 सर्गों में वाल्मीकि रामायण के आधार पर श्रीराम द्वारा सीता निर्वासन की मार्मिक कथा को नवीन उद्भावनाओं के साथ प्रस्तुत किया गया है।
*प्रमुख रचनाएँ*
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*नाटक*
प्रद्युम्न विजय
रुक्मिणी परिणय
*उपन्यास*
प्रेमकांता
ठेठ हिंदी का ठाट
अधखिला फूल
*काव्य संग्रह*
रसिक रहस्य
प्रेम प्रपंच
उद्बोधन
काव्योपवन
कर्मवीर
चोखे चौपदे
चुभते चौपदे
पद्य प्रसून
बोलचाल
रसकलश
कल्पलता
ग्रामगीत
हरिऔध सतसई
मर्मस्पर्श
*प्रबंधकाव्य*
प्रियप्रवास
पारिजात
वैदेही वनवास
*अनुवाद*
मर्चेंट ऑफ वेनिस- वेनिस का बांका
*आलोचना*
कबीर वचनावली
हिंदी भाषा और साहित्य का विकास
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कवि द्वारा पिछली सदी में रचित यह कविता समकालीन भारत में आज भी प्रासंगिक है-
भोर-तारे जो बने थे तेज खो
आज वे हैं तेज उनका खो रहे
माँद उनकी जोत जगती हो गई
चांद जैसे जगमगाते जो रहे
पालने वाले नहीं अब वे रहे
इसलिए अब हम पनप पलते नहीं
डालियां जिनकी फलों से थीं लदी
पेड़ वे अब फूलते फलते नहीं
धूल उनकी है उड़ाई जा रही
धूल में मिल धूल वे हैं फांकते
सब जगत मुँह ताकता जिनका रहा
आज वे हैं मुँह पराया ताकते!
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*काव्यभाषा के दो प्रतिदर्श*
1.दिवस का अवसान समीप था
गगन था कुछ लोहित हो चला।
तरुशिखा पर थी अब राजती
कमलिनी-कुल-वल्लभ की प्रभा।।
2.क्यों पले पीस कर किसी को तू ?
है बहुत पालिसी बुरी तेरी।
हम रहे चाहते पटाना ही;
पेट तुझसे पटी नहीं मेरी।।
*द्विकलात्मक कला*
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने संस्कृतनिष्ठ और बोलचाल दोनों ही काव्यशैलियों की रचना में सिद्धहस्त हरिऔध जी की प्रशंसा करते हुए कहा है- “यही द्विकलात्मक कला उपाध्याय जी की बड़ी विशेषता है। इससे शब्दभंडार पर इनका विस्तृत अधिकार प्रकट होता है।”
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*कर्मवीर*
और हाँ, बचपन में पढ़ी 'कर्मवीर' कविता का ध्यान तो होगा ही-
देखकर बाधा विविध बहु विघ्न घबराते नहीं
रह भरोसे भाग के दुख भोग पछताते नहीं
काम कितना ही कठिन हो किंतु उकताते नहीं
भीड़ में चंचल बने जो वीर दिखलाते नहीं
हो गए एक आन में उनके बुरे दिन भी भले
सब जगह सब काल में वे ही मिले फूले फले।
व्योम को छूते हुए दुर्गम पहाड़ों के शिखर
वे घने जंगल जहां रहता है तम आठो पहर
गर्जते जलराशि की उठती हुई ऊंची लहर
आग की भयदायिनी फैली दिशाओं में लपट
ये कँपा सकती कभी जिसके कलेजे को नहीं
भूल कर भी वह नहीं नाकाम रहता है कहीं।
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खड़ीबोली के प्रथम महाकवि ‘कविसम्राट’ अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ को अश्रुपूरित नमन!
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