Thursday, September 17, 2020

तुलसीदास के पद SYBA

 

     तुलसीदास         

     01

दीनको दयालु, दानि दूसरो न कोऊ।

जाहि दीनता कहैां हौं देखौं दीन सोऊ।।

 

 सुर, नर, मुनि, असुर, नाग, साहिब तौ घनेरे।

 पै तौ लौं जौ लौं रावरे न नेकु नयन फेरे।।

 

त्रिभुवन, तिहुँ काल बिदित, बेद बदति चारी।

आदि-अंत-मध्य राम! सहबी तिहारी।।

 

तोहि माँगि माँगनो न माँगनो कहायो।

सुनि सुभाव-सील-सुजसु जाचन जन आयो।।

 

पाहन-पसु बिटप- बिहँग अपने करि लीन्हे।

महाराज दसरथके! श्रंक राय कीन्हें।।

 

तू गरीबको निवाज, हौं गरीब तेरो।

बारक कहिये कृपालु! त्ुलसिदास मेरो।।                     

 

 

 

 

 

                           2

तू दयालु, दीन हौं , तू दानि , हौं भिखारी।
हौं प्रसिद्ध पातकी, तू पाप-पुंज-हारी।1

नाथ तू अनाथको, अनाथ कौन मोसो
मो समान आरत नहिं, आरतिहर तोसो।2

ब्रह्म तू ,हौं जीव, तू है ठाकुर, हौं चेरो।
तात -मात, गुर -सखा, तू सब बिधि हितू मेरो।3

तोहिं मोहिं नाते अनेक, मानियै जो भावै।
 ज्यों त्यों तुलसी कृपालु! चरन-सरन पावै।4

 

भावार्थः-- हे नाथ ! तू दीनोंपर दया करनेवाला है, तो मैं दीन हूँ । तू अतुल दानी है, तो मैं भीखमंगा हूँ । मैं प्रसिद्ध पापी हूँ, तो तू पाप - पुंजोंका नाश करनेवाला है ॥१॥

 

तू अनाथोंका नाथ है, तो मुझ - जैसा अनाथ भी और कौन है ? मेरे समान कोई दुःखी नहीं है और तेरे समान कोई दुःखोंको हरनेवाला नहीं है ॥२॥

 

तू ब्रह्म है, मैं जीव हूँ । तू स्वामी है, मैं सेवक हूँ । अधिक क्या, मेरा तो माता, पिता, गुरु, मित्र और सब प्रकारसे हितकारी तू ही है ॥३॥

 

मेरे - तेरे अनेक नाते हैं; नाता तुझे जो अच्छा लगे, वही मान ले । परंतु बात यह है कि हे कृपालु ! किसी भी तरह यह तुलसीदास तेरे चरणोंकी शरण पा जावे ॥४॥

 

          03

कबहूँ मन बिश्राम न मान्यो ।

निसिदिन भ्रमत बिसारि सहज सुख, जहँ तहँ इंद्रिन तान्यो ॥१॥

जदपि बिषय - सँग सह्यो दुसह दुख, बिषम जाल अरुझान्यो ।

तदपि न तजत मूढ़ ममताबस, जानतहूँ नहिं जान्यो ॥२॥

जनम अनेक किये नाना बिधि करम - कीच चित सान्यो ।

होइ न बिमल बिबेक - नीर बिनु, बेद पुरान बखान्यो ॥३॥

निज हित नाथ पिता गुरु हरिसों हरषि हदै नहिं आन्यो ।

तुलसिदास कब तृषा जाय सर खनतहि जनम सिरान्यो ॥४॥

भावार्थः-- अरे मन ! तूने कभी विश्राम नहीं लिया । अपना सहज सुखस्वरुप भूलकर दिन - रात इन्द्रियोंका खींचा हुआ जहाँ - तहाँ विषयोंमें भटक रहा है ॥१॥

यद्यपि विषयोंके संगसे तूने असह्य संकट सहे है और तू कठिन जालमें फँस गया है तो भी हे मूर्ख ! तू ममताके अधीन होकर उन्हें नहीं छोड़ता । इस प्रकार सब कुछ समझकर भी बेसमझ हो रहा है ॥२॥

अनेक जन्मोंमें नाना प्रकारके कर्म करके तू उन्हींके कीचड़में सन गया है, हे चित्त ! विवेकरुपी जल प्राप्त किये बिना यह कीचड़ कभी साफ नहीं हो सकता । ऐसा वेदपुराण कहते हैं ॥३॥

अपना कल्याण तो परम प्रभु, परम पिता और परम गुरुरुप हरिसे हैं, पर तूने उनको हुलसकर हदयमें कभी धारण नहीं किया, ( दिन - रात विषयोंके बटोरनेमें ही लगा रहा ) हे तुलसीदास ! ऐसे तालाबसे कब प्यास मिट सकती है, जिसके खोदनेमें ही सारा जीवन बीत गया ॥४॥

  04

 

जाऊँ कहाँ तजि चरन तुम्हारे।।

काको नाम पतित पावन जग,
केहि अति दीन पियारे।

जाऊँ कहाँ तजि चरन तुम्हारे।।

कौनहुँ देव बड़ाइ विरद हित,
हठि हठि अधम उधारे।

जाऊँ कहाँ तजि चरन तुम्हारे।।

खग मृग व्याध पषान विटप जड़,
यवन कवन सुर तारे।

जाऊँ कहाँ तजि चरन तुम्हारे।।

देव, दनुज, मुनि, नाग, मनुज,
सब माया-विवश बिचारे।

तिनके हाथ दास 'तुलसी' प्रभु,
कहा अपुनपौ हारे।

जाऊँ कहाँ तजि चरन तुम्हारे।।

 

 

 

 

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