**एक दिवसीय हिंदी कार्यशाला का आयोजन **
बुधवार , दिनांक १८ अगस्त २०१० को महाविद्यालय के हिंदी विभाग और हिंदी अध्ययन मंडल,मुंबई विद्यापीठ के संयुक्त तत्वावधान में बी.ए. प्रथम वर्ष (वैकल्पिक ) पेपर-१ पर एक दिवसीय कार्यशाला का आयोजन किया गया है.
कार्यशाला के लिए पंजीकरण का समय सुबह ९.३० से १०.०० बजे तक रहेगा .१०.०० बजे से ११.०० बजे तक उदघाटन सत्र चलेगा .१११.०० बजे से १.३० बजे तक चर्चा सत्र चलेगा. १.३० बजे से २.३० तक भोजनावकाश रहेगा .२.३० बजे से ३.०० बजे तक समापन सत्र होगा .
महाविद्यालय का पता इस प्रकार है ------
के.एम.अग्रवाल कला,वाणिज्य और विज्ञान महाविद्यालय
पडघा रोड,गांधारी गाँव ,
कल्याण (पश्चिम )४२१३०१
आप इस कार्यशाला में सादर आमंत्रित हैं.
Friday, July 30, 2010
Monday, July 26, 2010
सुभद्रा कुमारी चौहान /F.Y.B.A COMP.
सुभद्राकुमारी चौहान | |
सुभद्राकुमारी चौहान www.kavitakosh.org/subhadrakumari | ||||
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उपनाम | ||||
जन्म स्थान | ग्राम निहालपुर, इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश, भारत | |||
कुछ प्रमुख कृतियाँ | मुकुल, त्रिधारा | |||
विविध | ||||
जीवनी | सुभद्राकुमारी चौहान / परिचय | |||
Subhadrakumari Chauhan, Subhadra Kumari Chauhan | ||||
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- अनोखा दान / सुभद्राकुमारी चौहान
- आराधना / सुभद्राकुमारी चौहान
- इसका रोना / सुभद्राकुमारी चौहान
- उपेक्षा / सुभद्राकुमारी चौहान
- उल्लास / सुभद्राकुमारी चौहान
- कलह-कारण / सुभद्राकुमारी चौहान
- कोयल / सुभद्राकुमारी चौहान
- खिलौनेवाला / सुभद्राकुमारी चौहान
- चलते समय / सुभद्राकुमारी चौहान
- चिंता / सुभद्राकुमारी चौहान
- जीवन-फूल / सुभद्राकुमारी चौहान
- झाँसी की रानी की समाधि पर / सुभद्राकुमारी चौहान
- झांसी की रानी / सुभद्राकुमारी चौहान
- झिलमिल तारे / सुभद्राकुमारी चौहान
- ठुकरा दो या प्यार करो / सुभद्राकुमारी चौहान
- तुम / सुभद्राकुमारी चौहान
- नीम / सुभद्राकुमारी चौहान
- परिचय / सुभद्राकुमारी चौहान
- पानी और धूप / सुभद्राकुमारी चौहान
- पूछो / सुभद्राकुमारी चौहान
- प्रतीक्षा / सुभद्राकुमारी चौहान
- प्रथम दर्शन / सुभद्राकुमारी चौहान
- प्रभु तुम मेरे मन की जानो / सुभद्राकुमारी चौहान
- प्रियतम से / सुभद्राकुमारी चौहान
- फूल के प्रति / सुभद्राकुमारी चौहान
- बिदाई / सुभद्राकुमारी चौहान
- भ्रम / सुभद्राकुमारी चौहान
- मधुमय प्याली / सुभद्राकुमारी चौहान
- मुरझाया फूल / सुभद्राकुमारी चौहान
- मेरा गीत / सुभद्राकुमारी चौहान
- मेरा जीवन / सुभद्राकुमारी चौहान
- मेरा नया बचपन / सुभद्राकुमारी चौहान
- मेरी टेक / सुभद्राकुमारी चौहान
- मेरे पथिक / सुभद्राकुमारी चौहान
- यह कदम्ब का पेड़-2 / सुभद्राकुमारी चौहान
- यह कदम्ब का पेड़ / सुभद्राकुमारी चौहान
- विजयी मयूर / सुभद्राकुमारी चौहान
- विदा / सुभद्राकुमारी चौहान
- वीरों का हो कैसा वसन्त / सुभद्राकुमारी चौहान
- वेदना / सुभद्राकुमारी चौहान
- व्याकुल चाह / सुभद्राकुमारी चौहान
- समर्पण / सुभद्राकुमारी चौहान
- साध / सुभद्राकुमारी चौहान
- स्वदेश के प्रति / सुभद्राकुमारी चौहान
सुभद्रा कुमारी चौहान
विकिपीडिया, एक मुक्त ज्ञानकोष से
सुभद्रा कुमारी चौहान सुभद्रा कुमारी चौहान के सम्मान में जारी डाक-टिकट | |
जन्म: | १६ अगस्त १९०४ निहालपुर इलाहाबाद भारत |
---|---|
मृत्यु: | १५ फरवरी १९४८ जबलपुर भारत |
कार्यक्षेत्र: | लेखक |
राष्ट्रीयता: | भारतीय |
भाषा: | हिन्दी |
काल: | आधुनिक काल |
विधा: | गद्य और पद्य |
विषय: | कविता और कहानियाँ |
साहित्यिक आन्दोलन: | भारतीय स्वाधीनता आंदोलन से प्रेरित देशप्रेम |
अनुक्रम[छुपाएँ] |
जीवन परिचय
सुभद्रा कुमारी चौहान, चार बहने और दो भाई थे। उनके पिता ठाकुर रामनाथ सिंह शिक्षा के प्रेमी थे और उन्हीं की देख-रेख में उनकी प्रारम्भिक शिक्षा भी हुई। १९१९ में खंडवा के ठाकुर लक्षमण सिंह के साथ विवाह के बाद वे जबलपुर आ गई थीं। १९२१ में गांधी जी के असहयोग आंदोलन में भाग लेने वाली वह प्रथम महिला थीं। वे दो बार जेल भी गई थीं।[२] सुभद्रा कुमारी चौहान की जीवनी, इनकी पुत्री, सुधा चौहान ने 'मिला तेज से तेज' नामक पुस्तक में लिखी है। इसे हंस प्रकाशन, इलाहाबाद ने प्रकाशित किया है।[३] वे एक रचनाकार होने के साथ-साथ स्वाधीनता संग्राम की सेनानी भी थीं। डॉo मंगला अनुजा की पुस्तक सुभद्रा कुमारी चौहान उनके साहित्यिक व स्वाधीनता संघर्ष के जीवन पर प्रकाश डालती है। साथ ही स्वाधीनता आंदोलन में उनके कविता के जरिए नेतृत्व को भी रेखांकित करती है।[४] १५ फरवरी १९४८ को एक कार दुर्घटना में उनका आकस्मिक निधन हो गया था।[५]कथा साहित्य
बिखरे मोती उनका पहला कहानी संग्रह है। इसमें भग्नावशेष, होली, पापीपेट, मंझलीरानी, परिवर्तन, दृष्टिकोण, कदम के फूल, किस्मत, मछुये की बेटी, एकादशी, आहुति, थाती, अमराई, अनुरोध, व ग्रामीणा कुल १५ कहानियां हैं! इन कहानियों की भाषा सरल बोलचाल की भाषा है! अधिकांश कहानियां नारी विमर्श पर केंद्रित हैं! उन्मादिनी शीर्षक से उनका दूसरा कथा संग्रह १९३४ में छपा! इस में उन्मादिनी, असमंजस, अभियुक्त, सोने की कंठी, नारी हृदय, पवित्र ईर्ष्या, अंगूठी की खोज, चढ़ा दिमाग, व वेश्या की लड़की कुल ९ कहानियां हैं! इन सब कहानियो का मुख्य स्वर पारिवारिक सामाजिक परिदृश्य ही है! सीधे साधे चित्र सुभद्रा कुमारी चौहान का तीसरा व अंतिम कथा संग्रह है! इसमें कुल १४ कहानियां हैं! रूपा, कैलाशी नानी, बिआल्हा, कल्याणी, दो साथी, प्रोफेसर मित्रा, दुराचारी व मंगला ८ कहानियों की कथावस्तु नारी प्रधान पारिवारिक सामाजिक समस्यायें हैं ! हींगवाला, राही, तांगे वाला, एवं गुलाबसिंह कहानियां राष्ट्रीय विषयों पर आधारित हैं। सुभद्रा कुमारी चौहान ने कुल ४६ कहानियां लिखी, और अपनी व्यापक कथा दृष्टि से वे एक अति लोकप्रिय कथाकार के रूप में हिन्दी साहित्य जगत में सुप्रतिष्ठित हैं![६]सम्मान पुरस्कार
भारतीय तटरक्षक सेना ने २८ अप्रैल २००६ को सुभद्राकुमारी चौहान की राष्ट्रप्रेम की भावना को सम्मानित करने के लिए नए नियुक्त एक तटरक्षक जहाज़ को सुभद्रा कुमारी चौहान का नाम दिया है।[७] भारतीय डाकतार विभाग ने ६ अगस्त १९७६ को सुभद्रा कुमारी चौहान के सम्मान में २५ पैसे का एक डाक-टिकट जारी किया है।कृतियाँ
- कहानी संग्रह- बिखरे मोती, उन्मादिनी, सीधे साधे चित्र
- कविता संग्रह- मुकुल और त्रिधारा
संदर्भ
माखनलाल चतुर्वेदी/F.Y.B.A. COMP.
माखनलाल चतुर्वेदी | ||||
---|---|---|---|---|
जन्म-४ अप्रैल १८८९, बवाई गाँव,होसंगाबाद. मध्य प्रदेश | ||||
मृत्यु- | जनवरी ३० , १९६८ | |||
रास्ट्रीय (पुरस्कार | १९५५ : साहित्य अकादेमी पुरस्कार | माखनलाल चतुर्वेदी (४ अप्रैल १८८९-३० जनवरी १९६८) भारत के ख्यातिप्राप्त कवि, लेखक और पत्रकार थे जिनकी रचनाएँ अत्यंत लोकप्रिय हुईं। सरल भाषा और ओजपूर्ण भावनाओं के वे अनूठे हिंदी रचनाकार थे। प्रभा और कर्मवीर जैसे प्रतिष्ठत पत्रों के संपादक के रूप में उन्होंने ब्रिटिश शासन के खिलाफ जोरदार प्रचार किया और नई पीढी का आह्वान किया कि वह गुलामी की जंज़ीरों को तोड़ कर बाहर आए। इसके लिये उन्हें अनेक बार ब्रिटिश साम्राज्य का कोपभाजन बनना पड़ा।[१] वे सच्चे देशप्रमी थे और १९२१-२२ के असहयोग आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लेते हुए जेल भी गए। आपकी कविताओं में देशप्रेम के साथ साथ प्रकृति और प्रेम का भी सुंदर चित्रण हुआ है।
[संपादित करें] जीवनीश्री माखनलाल चतुर्वेदी का जन्म मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले में बाबई[२] नामक स्थान पर हुआ था।[संपादित करें] कार्यक्षेत्रमाखनलाल चतुर्वेदी का तत्कालीन राष्ट्रीय परिदृश्य और घटनाचक्र ऐसा था जब लोकमान्य तिलक का उद्घोष- 'स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है' बलिपंथियों का प्रेरणास्रोत बन चुका था। दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह के अमोघ अस्त्र का सफल प्रयोग कर कर्मवीर मोहनदास करमचंद गाँधी का राष्ट्रीय परिदृश्य के केंद्र में आगमन हो चुका था। आर्थिक स्वतंत्रता के लिए स्वदेशी का मार्ग चुना गया था, सामाजिक सुधार के अभियान गतिशील थे और राजनीतिक चेतना स्वतंत्रता की चाह के रूप में सर्वोच्च प्राथमिकता बन गई थी। ऐसे समय में माधवराव सप्रे के 'हिन्दी केसरी' ने सन १९०८ में 'राष्ट्रीय आंदोलन और बहिष्कार' विषय पर निबंध प्रतियोगिता का आयोजन किया। खंडवा के युवा अध्यापक माखनलाल चतुर्वेदी का निबंध प्रथम चुना गया। अप्रैल १९१३ में खंडवा के हिन्दी सेवी कालूराम गंगराड़े ने मासिक पत्रिका 'प्रभा' का प्रकाशन आरंभ किया, जिसके संपादन का दायित्व माखनलालजी को सौंपा गया। सितंबर १९१३ में उन्होंने अध्यापक की नौकरी छोड़ दी और पूरी तरह पत्रकारिता, साहित्य और राष्ट्रीय आंदोलन के लिए समर्पित हो गए। इसी वर्ष कानपुर से गणेश शंकर विद्यार्थी ने 'प्रताप' का संपादन-प्रकाशन आरंभ किया। १९१६ के लखनऊ कांग्रेस अधिवेशन के दौरान माखनलालजी ने विद्यार्थीजी के साथ मैथिलीशरण गुप्त और महात्मा गाँधी से मुलाकात की। महात्मा गाँधी द्वारा आहूत सन १९२० के 'असहयोग आंदोलन' में महाकोशल अंचल से पहली गिरफ्तारी देने वाले माखनलालजी ही थे। सन १९३० के सविनय अवज्ञा आंदोलन में भी उन्हें गिरफ्तारी देने का प्रथम सम्मान मिला। उनके महान कृतित्व के तीन आयाम हैं : एक, पत्रकारिता- 'प्रभा', 'कर्मवीर' और 'प्रताप' का संपादन। दो- माखनलालजी की कविताएँ, निबंध, नाटक और कहानी। तीन- माखनलालजी के अभिभाषण/ व्याख्यान।[३][संपादित करें] पुरस्कार व सम्मान१९४३ में उस समय का हिन्दी साहित्य का सबसे बड़ा 'देव पुरस्कार' माखनलालजी को 'हिम किरीटिनी' पर दिया गया था। १९५४ में साहित्य अकादमी पुरस्कारों की स्थापना होने पर हिन्दी साहित्य के लिए प्रथम पुरस्कार दादा को 'हिमतरंगिनी' के लिए प्रदान किया गया। 'पुष्प की अभिलाषा' और 'अमर राष्ट्र' जैसी ओजस्वी रचनाओं के रचयिता इस महाकवि के कृतित्व को सागर विश्वविद्यालय ने १९५९ में डी.लिट्. की मानद उपाधि से विभूषित किया। १९६३ में भारत सरकार ने 'पद्मभूषण' से अलंकृत किया। १० सितंबर १९६७ को राष्ट्रभाषा हिन्दी पर आघात करने वाले राजभाषा संविधान संशोधन विधेयक के विरोध में माखनलालजी ने यह अलंकरण लौटा दिया। १६-१७ जनवरी १९६५ को मध्यप्रदेश शासन की ओर से खंडवा में 'एक भारतीय आत्मा' माखनलाल चतुर्वेदी के नागरिक सम्मान समारोह का आयोजन किया गया। तत्कालीन राज्यपाल श्री हरि विनायक पाटसकर और मुख्यमंत्री पं. द्वारकाप्रसाद मिश्र तथा हिन्दी के अग्रगण्य साहित्यकार-पत्रकार इस गरिमामय समारोह में उपस्थित थे। भोपाल का माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय उन्हीं के नाम पर स्थापित किया गया है। उनके काव्य संग्रह 'हिमतरंगिणी' के लिये उन्हें १९५५ में हिन्दी के 'साहित्य अकादमी पुरस्कार' से सम्मानित किया गया।[४][संपादित करें] प्रकाशित कृतियाँ
[संपादित करें] बाहरी कड़ियाँ
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Tuesday, July 20, 2010
अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'/F.Y.B.A. COMP.
अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
१५ अप्रैल १८६५ को आजमगढ़ के निजामाबाद कस्बे में।
शिक्षा :
स्वाध्याय द्वारा हिंदी, संस्कृत, बंगला, पंजाबी तथा फारसी का ज्ञान।
कार्यक्षेत्र :
खड़ी बोली के प्रथम महाकाव्यकार हरिऔध जी का सृजनकाल हिन्दी के तीन युगों में विस्तृत है भारतेन्दु युग, द्विवेदी युग और छायावादी युग। इसीलिये हिन्दी कविता के विकास में 'हरिऔध' जी की भूमिका नींव के पत्थर के समान है। उन्होंने संस्कृत छंदों का हिन्दी में सफल प्रयोग किया है।
अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ की बहुचर्चित—कृति ‘प्रिय प्रवास’ खड़ी बोली का पहला महाकाव्य है। साहित्य के तीन महत्त्वपूर्ण—भारतेंदु, द्विवेदी व छायावादी-युगों में फैले विस्तृत रचनाकाल के कारण वे हिंदी-कविता के विकास में नींव के पत्थर माने जाते हैं। हरिऔध जी ने नाटक व उपन्यास लिखे, आलोचनात्मक लेखन किया और बाल-साहित्य भी रचा किंतु ख्यात कवि के रूप में हुए। उन्होंने संस्कृति-छंदों का हिंदी में सफलतम प्रयोग किया। आम बोल-चाल में रची हरिऔध जी की रचनाएं—‘चोखे चौपदे’ व ‘चुभते चौपदे’ उर्दू जुबान की मुहावरे की शक्ति को कुशलता से उकेरती है। उनका जन्म आजमगढ़ उ.प्र. के निजामाबाद में 15 अप्रैल, 1865 को हुआ। 16 मार्च, 1947 को अयोध्यासिंह उपाध्याय ने इस दुनिया से विदा ली।
कहें क्या बात आंखों की, चाल चलती हैं मनमानी
सदा पानी में डूबी रह, नहीं रह सकती हैं पानी
लगन है रोग या जलन, किसी को कब यह बतलाया
जल भरा रहता है उनमें, पर उन्हें प्यासी ही पाया
हाका अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध' की रचनाएँ-
कवितायेँ
आँख का आँसू
एक बूँद
कर्मवीर
बादल
संध्या
सरिता
निर्मम संसार
मतवाली ममता
फूल
विवशता
प्यासी आँखें
आँसू और आँखें
दोहे
जन्मभूमि
व आम हिन्दुस्तानी बोलचाल में 'चोखे चौपदे' , तथा 'चुभते चौपदे' रचकर उर्दू जुबान की मुहावरेदारी की शक्ति भी रेखांकित की। मैथिलीशरण गुप्त /F.Y.B.A. COMPULSORY
मैथिलीशरण गुप्त
जन्म : सन १८८५ ई.मैथिलीशरण गुप्त खड़ी बोली कविता के प्रथम महत्त्वपूर्ण कवि हैं।श्री महावीर प्रसाद द्विवेदी की प्रेरणा से उन्होंने खड़ी-बोली को अपनी रचनाओं द्वारा एक काव्य-भाषा के रूप में निर्मित करने में अथक प्रयास किया और इस तरह ब्रजभाषा-जैसी समृद्ध काव्य-भाषा को छोड़कर समय और संदर्भों के अनुकूल होने के कारण नये कवियों ने इसे ही अपनी काव्य-अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। हिन्दी कविता के इतिहास में गुप्त जी का यह सबसे बड़ा योगदान है।
पवित्रता, नैतिकता और परंपरागत मानवीय संबंधों की रक्षा गुप्त जी के काव्य के प्रथम गुण हैं, जो पंचवटी से लेकर 'जयद्रथ वध', 'यशोधरा' और 'साकेत' तक में प्रतिष्ठित एवं प्रतिफलित हुए हैं।'साकेत' उनकी रचना का सर्वोच्च शिखर है।
मृत्यु : सन १९६४ ई.
हिन्दी के कवि
मैथिलीशरण गुप्त
(1886-1964 ई.)
साहित्य जगत में 'दद्दा नाम से प्रसिध्द राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त का जन्म झांसी के चिरगांव ग्राम में हुआ। इनकी शिक्षा घर पर ही हुई। ये भारतीय संस्कृति एवं वैष्णव परंपरा के प्रतिनिधि कवि हैं, जिन्होंने पचास वर्षों तक निरंतर काव्य सर्जना की। लगभग 40 ग्रंथ रचे तथा खडी बोली को सरल, प्रवाहमय और सशक्त बनाया। इनकी मुख्य काव्य-कृतियां हैं- 'भारत-भारती, 'साकेत, 'यशोधरा, 'कुणाल-गीत, 'जयद्रथ-वध, 'द्वापर, 'पंचवटी तथा 'जय भारत। 'साकेत पर इन्हें 'मंगला प्रसाद पारितोषिक मिला था। ये 'पद्म-भूषण के अलंकरण से सम्मानित हुए। 1952 से 1964 तक ये राज्यसभा के मनोनीत सदस्य भी रहे।
मातृभूमि
नीलाम्बर परिधान हरित पट पर सुंदर हैं,
सूर्य चंद्र युग मुकुट, मेखला रत्नाकर हैं।
नदियां प्रेम-प्रवाह, फूल तारे मंडल हैं,
बंदीजन खग-वृंद शेष-फन सिंहासन हैं।
करते अभिषेक पयोद हैं, बलिहारी इस वेष की,
हे मातृभूमि, तू सत्य ही सगुण मूर्ति सर्वेश की।
जिसकी रज में लोट-लोटकर बडे हुए हैं,
घुटनों के बल सरक-सरक कर खडे हुए हैं।
परमहंस-सम बाल्यकाल में सब सुख पाए,
जिसके कारण 'धूलि भरे हीरे कहलाए।
हम खेले-कूदे हर्षयुत जिसकी प्यारी गोद में,
हे मातृभूमि, तुझको निरख मग्न क्यों न हों मोद में?
पाकर तुझसे सभी सुखों को हमने भोगा,
तेरा प्रत्युपकार कभी क्या हमसे होगा?
तेरी ही यह देह, तुझी से बनी हुई है,
बस, तेरे ही सुरस-सार से सनी हुई है।
फिर अंत समय तू ही इसे, अचल देख अपनायगी,
हे मातृभूमि, यह अंत में, तुझमें ही मिल जाएगी।
क्षमामयी, तू दयामयी है, क्षेममयी है,
सुधामयी, वात्सल्यमयी, तू प्रेममयी है।
विभवशालिनी, विश्वपालिनी, दुखहर्त्री है,
भय-निवारिणी, शांतिकारिणी, सुखकर्त्री है।
हे शरणदायिनी देवि तू, करती सबका त्राण है,
हे मातृभूमि, संतान हम, तू जननी, तू प्राण है।
जिस पृथिवी में मिले हमारे पूर्वज प्यारे,
उससे हे भगवान्! कभी हम रहें न न्यारे।
लोट-लोटकर वहीं हृदय को शांत करेंगे,
उसमें मिलते समय मृत्यु से नहीं डरेंगे।
उस मातृभूमि की धूलि में जब पूरे सन जायंगे,
होकर भाव-बंधन-मुक्त हम आत्मरूप बन जायंगे।
सूर्य चंद्र युग मुकुट, मेखला रत्नाकर हैं।
नदियां प्रेम-प्रवाह, फूल तारे मंडल हैं,
बंदीजन खग-वृंद शेष-फन सिंहासन हैं।
करते अभिषेक पयोद हैं, बलिहारी इस वेष की,
हे मातृभूमि, तू सत्य ही सगुण मूर्ति सर्वेश की।
जिसकी रज में लोट-लोटकर बडे हुए हैं,
घुटनों के बल सरक-सरक कर खडे हुए हैं।
परमहंस-सम बाल्यकाल में सब सुख पाए,
जिसके कारण 'धूलि भरे हीरे कहलाए।
हम खेले-कूदे हर्षयुत जिसकी प्यारी गोद में,
हे मातृभूमि, तुझको निरख मग्न क्यों न हों मोद में?
पाकर तुझसे सभी सुखों को हमने भोगा,
तेरा प्रत्युपकार कभी क्या हमसे होगा?
तेरी ही यह देह, तुझी से बनी हुई है,
बस, तेरे ही सुरस-सार से सनी हुई है।
फिर अंत समय तू ही इसे, अचल देख अपनायगी,
हे मातृभूमि, यह अंत में, तुझमें ही मिल जाएगी।
क्षमामयी, तू दयामयी है, क्षेममयी है,
सुधामयी, वात्सल्यमयी, तू प्रेममयी है।
विभवशालिनी, विश्वपालिनी, दुखहर्त्री है,
भय-निवारिणी, शांतिकारिणी, सुखकर्त्री है।
हे शरणदायिनी देवि तू, करती सबका त्राण है,
हे मातृभूमि, संतान हम, तू जननी, तू प्राण है।
जिस पृथिवी में मिले हमारे पूर्वज प्यारे,
उससे हे भगवान्! कभी हम रहें न न्यारे।
लोट-लोटकर वहीं हृदय को शांत करेंगे,
उसमें मिलते समय मृत्यु से नहीं डरेंगे।
उस मातृभूमि की धूलि में जब पूरे सन जायंगे,
होकर भाव-बंधन-मुक्त हम आत्मरूप बन जायंगे।
रात्रि वर्णन
चारु चंद्र की चंचल किरणें
खेल रही हैं जल-थल में,
स्वच्छ चांदनी बिछी हुई है
अवनि और अंबर तल में।
पुलक प्रगट करती है धरती
हरित तृणों की नोकों से,
मानो झूम रहे हैं तरु भी
मंद पवन के झोंकों से॥
क्या ही स्वच्छ चांदनी है यह
है क्या ही निस्तब्ध निशा,
है स्वच्छंद-सुमंद गंध वह,
निरानंद है कौन दिशा?
बंद नहीं, अब भी चलते हैं
नियति-नटी के कार्य-कलाप,
पर कितने एकांत भाव से,
कितने शांत और चुपचाप॥
है बिखेर देती वसुंधरा
मोती, सबके सोने पर,
रवि बटोर लेता है उनको
सदा सबेरा होने पर।
और विरामदायिनी अपनी
संध्या को दे जाता है,
शून्य श्याम तनु जिससे उसका-
नया रूप छलकाता है॥
पंचवटी की छाया में है
सुंदर पर्ण कुटीर बना,
उसके सम्मुख स्वच्छ शिला पर
धीर वीर निर्भीक-मना,
जाग रहा यह कौन धनुर्धर,
जबकि भुवन भर सोता है?
भोगी कुसुमायुध योगी सा
बना दृष्टिगत होता है।
खेल रही हैं जल-थल में,
स्वच्छ चांदनी बिछी हुई है
अवनि और अंबर तल में।
पुलक प्रगट करती है धरती
हरित तृणों की नोकों से,
मानो झूम रहे हैं तरु भी
मंद पवन के झोंकों से॥
क्या ही स्वच्छ चांदनी है यह
है क्या ही निस्तब्ध निशा,
है स्वच्छंद-सुमंद गंध वह,
निरानंद है कौन दिशा?
बंद नहीं, अब भी चलते हैं
नियति-नटी के कार्य-कलाप,
पर कितने एकांत भाव से,
कितने शांत और चुपचाप॥
है बिखेर देती वसुंधरा
मोती, सबके सोने पर,
रवि बटोर लेता है उनको
सदा सबेरा होने पर।
और विरामदायिनी अपनी
संध्या को दे जाता है,
शून्य श्याम तनु जिससे उसका-
नया रूप छलकाता है॥
पंचवटी की छाया में है
सुंदर पर्ण कुटीर बना,
उसके सम्मुख स्वच्छ शिला पर
धीर वीर निर्भीक-मना,
जाग रहा यह कौन धनुर्धर,
जबकि भुवन भर सोता है?
भोगी कुसुमायुध योगी सा
बना दृष्टिगत होता है।
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के मार्गदर्शन में जिन कवियों ने ब्रज-भाषा के स्थान पर खड़ी बोली हिन्दी को अपनी काव्य-भाषा बनाकर उसकी क्षमता से विश्व को परिचित कराया, उनमें श्रद्धेय मैथिलीशरण गुप्त का नाम सबसे प्रमुख है। उनकी काव्य-प्रतिभा का सम्मान करते हुये साहित्य-जगत उन्हें राष्ट्रकवि के रूप में याद करता रहा है।
मैथिली जी का जन्म झाँसी के समीप चिरगाँव में 3 अगस्त, 1886 को हुआ। बचपन में स्कूल जाने में रूचि न होने के कारण इनके पिता सेठ रामचरण गुप्त ने इनकी शिक्षा का प्रबंध घर पर ही किया था और इसी तरह उन्होंने संस्कृत, अंग्रेज़ी और बांग्ला का ज्ञान प्राप्त किया। काव्य-लेखन की शुरुआत उन्होंने पत्र-पत्रिकाओं में अपनी कवितायें प्रकाशित कर की। इन्हीं पत्रिकाओं में से एक ’सरस्वती’ आचार्य द्विवेदी के संपादन में निकलती थी। युवक मैथिली ने आचार्य की प्रेरणा से खड़ी बोली में लिखना शुरू किया। 1910 में उनकी पहला प्रबंधकाव्य ’रंग में भंग’ प्रकाशित हुआ। ’भारत-भारती’ के प्रकाशन के साथ ही वे एक लोकप्रिय कवि के रूप में स्थापित हो गये।
मैथिली जी की रूचि ऐतिहासिक और पौराणिक कथानकों पर आधारित प्रबंधकाव्य लिखने में अधिक थी और उन्होंने रामायण, महाभारत, बुद्ध-चरित आदि पर आधारित बड़ी सुंदर रचनायें लिखीं हैं। रामायण पर आधारित ’साकेत’ शायद उनकी सबसे प्रसिद्ध और कालजयी कृति है। इसमें उन्होंने रामायण की कथा को तत्कालीन अयोध्या में बैठे किसी व्यक्ति की तरह वर्णित किया है। पर इसकी प्रसिद्धि का सबसे सशक्त आधार है; पूरे प्रबंधकाव्य के दो सर्गों में वर्णित लक्ष्मण-पत्नी उर्मिला का वियोग वर्णन। रामायण में उपेक्षित रह गई उर्मिला को गुप्त जी ने जैसे अपने हृदय का सारा स्नेह प्रदान कर दिया है। इसी प्रकार ’यशोधरा’ में गौतम बुद्ध के घर छोड़ने के बाद यशोधरा की अवस्था का बड़ा ही मार्मिक चित्रण गुप्त जी ने किया है। इन दोनों ही रचनाओं के वियोग वर्णन की खासियत यह है कि इसमें उर्मिला और यशोधरा के माध्यम से आधुनिक नारी-विमर्श को भी स्वर दिया गया है।
वेदने, तू भी भली बनी।
पाई मैंने आज तुझी में अपनी चाह घनी।
नई किरण छोडी है तूने, तू वह हीर-कनी,
सजग रहूँ मैं, साल हृदय में, ओ प्रिय विशिख-अनी।
ठंडी होगी देह न मेरी, रहे दृगम्बु सनी,
तू ही उष्ण उसे रखेगी मेरी तपन-मनी। (साकेत)
सखि, वे मुझसे कहकर जाते,
कह, तो क्या मुझको वे अपनी पथ-बाधा ही पाते?
मुझको बहुत उन्होंने माना
फिर भी क्या पूरा पहचाना?
मैंने मुख्य उसी को जाना
जो वे मन में लाते।
सखि, वे मुझसे कहकर जाते। (यशोधरा)
नारी-सशक्तिकरण के अलावा गुप्त जी की रचनाओं में भारतीय संस्कृति के उत्थान और जन-जागरण का स्वर प्रमुखत: ध्वनित होता है। ’भारत-भारत’ के अलावा ’किसान’, ’आर्य’, ’मातृभूमि’ और ’जय भारत’ जैसी कविताओं में उनके देश और समाज के प्रति रुझान का स्पष्ट परिचय मिलता है। गुप्त जी की अन्य प्रसिद्ध कृतियाँ हैं - जयद्रथ-वध, पंचवटी, वैतालिक, काबा-कर्बला, द्वापर, कुणाल (काव्य), तिलोत्तमा और चंद्रहास (नाटक)। इसके अतिरिक्त उन्होंने रुबाइयात उमर खैयाम और संस्कृत नाटक ’स्वप्नवासवद्त्ता’ का अनुवाद भी किया।
हम कौन थे, क्या हो गये हैं, और क्या होंगे अभी
आओ विचारें आज मिल कर, यह समस्याएं सभी
भू लोक का गौरव, प्रकृति का पुण्य लीला स्थल कहां
फैला मनोहर गिरि हिमालय, और गंगाजल कहां
संपूर्ण देशों से अधिक, किस देश का उत्कर्ष है
उसका कि जो ऋषि भूमि है, वह कौन, भारतवर्ष है (आर्य)
मैथिली जी की भाषा निरंतर विकास की ओर अग्रसर होती दिखाई देती है. आरंभिक कविताओं में जहाँ कहीं-कहीं भाषा भावों के साथ तालमेल न बिठा पाने के कारण रूखी जान पड़ती है, वहीं बाद में ’साकेत’ जैसी रचनाओं में वे अत्यंत भावप्रवण भाषा का प्रयोग करते हैं जिसमें कुछ कुछ छायावाद की झलक भी मिलती है। शैली की दृष्टि से देखें तो मैथिली जी की कवितायें द्विवेदी युगीन अन्य कवियों की ही तरह कुछ इतिवृत्तात्मक प्रतीत होतीं हैं।
आज़ादी के बाद उन्हें मानद राज्यसभा सदस्य का पद प्रदान किया गया जिस पर वे 12 दिसंबर, 1964 को अपनी मृत्यु तक रहे।चारु चंद्र की चंचल किरणें,
खेल रहीं थीं जल थल में।
स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई थी,
अवनि और अम्बर तल में।
पुलक प्रकट करती थी धरती,
हरित तृणों की नोकों से।
मानो झूम रहे हों तरु भी,
मन्द पवन के झोंकों से। (पंचवटी)
(यह सभी जानकारी वेब से ली गई है. यह मेरा लिखा हुआ लेख नहीं है )
कहानीकार कमलेश्वर/F.Y.B.A. OPT.
जन्म :
6 जनवरी को उ.प्र. के मैनपुरी जिले में भारत में।
शिक्षा :6 जनवरी को उ.प्र. के मैनपुरी जिले में भारत में।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिंदी में एम.ए. की उपाधि।
कार्यक्षेत्र :
'विहान' जैसी पत्रिका का 1954 में संपादन आरंभ कर कमलेश्वर ने कई पत्रिकाओं का सफल संपादन किया जिनमें 'नई कहानियाँ'(1963-66), 'सारिका' (1967-78), 'कथायात्रा' (1978-79), 'गंगा' (1984-88) आदि प्रमुख हैं। इनके द्वारा संपादित अन्य पत्रिकाएँ हैं- 'इंगित' (1961-63) 'श्रीवर्षा' (1979-80)। हिंदी दैनिक 'दैनिक जागरण'(1990-92) के भी वे संपादक रहे हैं। 'दैनिक भास्कर' से 1997 से वे लगातार जुड़े हैं। इस बीच जैन टीवी के समाचार प्रभाग का कार्य भार सम्हाला। सन 1980-82 तक कमलेश्वर दूरदर्शन के अतिरिक्त महानिदेशक भी रहे।
कमलेश्वर का नाम नई कहानी आंदोलन से जुड़े अगुआ कथाकारों में आता है। उनकी पहली कहानी 1948 में प्रकाशित हो चुकी थी परंतु 'राजा निरबंसिया' (1957) से वे रातों-रात एक बड़े कथाकार बन गए। कमलेश्वर ने तीन सौ से ऊपर कहानियाँ लिखी हैं। उनकी कहानियों में 'मांस का दरिया,' 'नीली झील', 'तलाश', 'बयान', 'नागमणि', 'अपना एकांत', 'आसक्ति', 'ज़िंदा मुर्दे', 'जॉर्ज पंचम की नाक', 'मुर्दों की दुनिया', 'क़सबे का आदमी' एवं 'स्मारक' आदि उल्लेखनीय हैं।
उन्होंने दर्जन भर उपन्यास भी लिखे हैं। इनमें 'एक सड़क सत्तावन गलियाँ', 'डाक बंगला', 'तीसरा आदमी', 'समुद्र में खोया आदमी' और 'काली आँधी' प्रमुख हैं। 'काली आँधी' पर गुलज़ार द्वारा निर्मित' आँधी' नाम से बनी फ़िल्म ने अनेक पुरस्कार जीते। उनके अन्य उपन्यास हैं -'लौटे हुए मुसाफ़िर', 'वही बात', 'आगामी अतीत', 'सुबह-दोपहर शाम', 'रेगिस्तान', 'एक और चंद्रकांता' तथा 'कितने पाकिस्तान' हैं। 'कितने पाकिस्तान' ऐतिहासिक उथल-पुथल की विचारोत्तेजक महा गाथा है।
कमलेश्वर ने नाटक भी लिखे हैं। 'अधूरी आवाज़', 'रेत पर लिखे नाम' , 'हिंदोस्ताँ हमारा' के अतिरिक्त बाल नाटकों के चार संग्रह भी उन्होंने लिखे हैं।
आलोचना के क्षेत्र में उनकी 'नई कहानी की भूमिका' तथा 'मेरा पन्ना: समानांतर सोच'(दो खंड) महत्वपूर्ण पुस्तकें समझी जाती है। उनके यात्रा विवरण 'खंडित यात्राएँ' और 'कश्मीर: रात के बाद' तथा के संस्मरण 'जो मैंने जिया', 'यादों के चिराग़' तथा 'जलती हुई नदी' (1997) शीर्षक से प्रकाशित हुए हैं। उन्होंने 'संकेत', 'नई धारा', 'मेरा हमदम मेरा दोस्त' इत्यादि हिंदी, मराठी, तेलगु, पंजाबी एवं उर्दू कथा संकलनों का भी संपादन किया है।
फ़िल्म और टेलीविजन के लिए लेखन के क्षेत्र में भी कमलेश्वर को काफ़ी सफलता मिली है। उन्होंने सारा आकाश, आँधी, अमानुष और मौसम जैसी फ़िल्मों के अलावा 'मि. नटवरलाल', 'द बर्निंग ट्रेन', 'राम बलराम' जैसी फ़िल्मों सहित 99 हिंदी फ़िल्मों का लेखन किया है।
कमलेश्वर भारतीय दूरदर्शन के पहले स्क्रिप्ट लेखक के रूप में भी जाने जाते हैं। उन्होंने टेलीविजन के लिए कई सफल धारावाहिक लिखे हैं जिनमें 'चंद्रकांता', 'युग', 'बेताल पचीसी', 'आकाश गंगा', 'रेत पर लिखे नाम' आदि प्रमुख हैं। भारतीय कथाओं पर आधारित पहला साहित्यिक सीरियल 'दर्पण' भी उन्होंने ही लिखा। दूरदर्शन पर साहित्यिक कार्यक्रम 'पत्रिका' की शुरुआत इन्हीं के द्वारा हुई तथा पहली टेलीफ़िल्म 'पंद्रह अगस्त' के निर्माण का श्रेय भी इन्हीं को जाता है। तकरीबन सात वर्षों तक दूरदर्शन पर चलने वाले 'परिक्रमा' में सामाजिक-सांस्कृतिक समस्याओं पर खुली बहस चलाने की दिशा में साहसिक पहल भी कमलेश्वर जी की थी। वे स्वातंत्र्योत्तर भारत के सर्वाधिक क्रियाशील, विविधतापूर्ण और मेधावी हिंदी लेखक हैं।
निधन:
27 जनवरी २००७
(उपर्युक्त जानकारी ttp://abhivyakti-hindi.org/lekhak/k/kamleshwar.हतं नामक पत्रिका से ली गई है.
यह मेरे द्वारा लिखा गया लेख नहीं है )
कहानीकार जैनेन्द्र कुमार /F.Y.B.A. OPT.
प्रेमचंदोत्तर
उपन्यासकारों में जैनेंद्रकुमार का विशिष्ट स्थान
है। वह हिंदी उपन्यास के इतिहास में मनोविश्लेषणात्मक परंपरा के प्रवर्तक
के रूप में मान्य हैं। जैनेंद्र अपने पात्रों की सामान्यगति में सूक्ष्म
संकेतों की निहिति की खोज करके उन्हें बड़े कौशल से प्रस्तुत करते हैं।
उनके पात्रों की चारित्रिक विशेषताएँ इसी कारण से संयुक्त होकर उभरती हैं।
जैनेंद्र के उपन्यासों में घटनाओं की संघटनात्मकता पर बहुत कम बल दिया गया
मिलता है। चरित्रों की प्रतिक्रियात्मक संभावनाओं के निर्देशक सूत्र ही
मनोविज्ञान और दर्शन का आश्रय लेकर विकास को प्राप्त होते हैं।
उपन्यासकारों में जैनेंद्रकुमार का विशिष्ट स्थान
है। वह हिंदी उपन्यास के इतिहास में मनोविश्लेषणात्मक परंपरा के प्रवर्तक
के रूप में मान्य हैं। जैनेंद्र अपने पात्रों की सामान्यगति में सूक्ष्म
संकेतों की निहिति की खोज करके उन्हें बड़े कौशल से प्रस्तुत करते हैं।
उनके पात्रों की चारित्रिक विशेषताएँ इसी कारण से संयुक्त होकर उभरती हैं।
जैनेंद्र के उपन्यासों में घटनाओं की संघटनात्मकता पर बहुत कम बल दिया गया
मिलता है। चरित्रों की प्रतिक्रियात्मक संभावनाओं के निर्देशक सूत्र ही
मनोविज्ञान और दर्शन का आश्रय लेकर विकास को प्राप्त होते हैं।
का जन्म
२ जनवरी, सन
१९०५,
में अलीगढ़ के कौड़ियागंज गांव में हुआ। उनके बचपन का
नाम आनंदीलाल था। इनकी मुख्य
देन उपन्यास तथा कहानी है। एक साहित्य विचारक के रूप में भी इनका स्थान
मान्य है। इनके जन्म के दो वर्ष पश्चात इनके पिता की मृत्यु हो गई। इनकी
माता एवं मामा ने ही इनका पालन-पोषण किया। इनके मामा ने हस्तिनापुर में एक
गुरुकुल की स्थापना की थी। वहीं जैनेंद्र की प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा हुई।
उनका नामकरण भी इसी संस्था में हुआ। उनका घर का नाम आनंदी लाल था। सन १९१२
में उन्होंने गुरुकुल छोड़ दिया। प्राइवेट रूप से मैट्रीक परीक्षा में
बैठने की तैयारी के लिए वह बिजनौर आ गए। १९१९ में उन्होंने यह परीक्षा
बिजनौर से न देकर पंजाब से उत्तीर्ण की। जैनेंद्र की उच्च शिक्षा काशी
हिंदू विश्वविद्यालय में हुई। १९२१ में उन्होंने विश्वविद्यालय की पढ़ाई
छोड़ दी और कांग्रेस के असहयोग आंदोलन में भाग लेने के उद्देश्य से दिल्ली आ
गए। कुछ समय के लिए ये लाला लाजपत राय के 'तिलक स्कूल ऑफ पॉलिटिक्स' में
भी रहे, परंतु अंत में उसे भी छोड़ दिया।सन १९२१ से २३ के बीच जैनेंद्र ने
अपनी माता की सहायता से व्यापार किया, जिसमें इन्हें सफलता भी मिली।
जैनेन्द्र अपने पथ के अनूठे अन्वेषक थे। उन्होंने प्रेमचन्द के सामाजिक
यथार्थ के मार्ग को नहीं अपनाया, जो अपने समय का राजमार्ग था। लेकिन वे
प्रेमचन्द के विलोम नहीं थे, जैसा कि बहुत से समीक्षक सिद्ध करते रहे हैं;
वे प्रेमचन्द के पूरक थे। प्रेमचन्द और जैनेन्द्र को साथ-साथ रखकर ही जीवन
और इतिहास को उसकी समग्रता के साथ समझा जा सकता है। जैनेन्द्र का सबसे बड़ा
योगदान हिन्दी गद्य के निर्माण में था। भाषा के स्तर पर जैनेन्द्र द्वारा
की गई तोड़-फोड़ ने हिन्दी को तराशने का अभूतपूर्व काम किया। जैनेन्द्र का
गद्य न होता तो अज्ञेय का गद्य संभव न होता। हिन्दी कहानी ने प्रयोगशीलता का
पहला पाठ जैनेन्द्र से ही सीखा।
जैनेन्द्र ने
हिन्दी को एक पारदर्शी भाषा और भंगिमा दी, एक नया तेवर दिया, एक नया
`सिंटेक्स' दिया। आज के हिन्दी गद्य पर जैनेन्द्र की अमिट छाप है।--रवींद्र
कालिया जैनेंद्र के प्रायः सभी उपन्यासों में दार्शनिक और आध्यात्मिक
तत्वों के समावेश से दूरूहता आई है परंतु ये सारे तत्व जहाँ-जहाँ भी
उपन्यासों में समाविष्ट हुए हैं, वहाँ वे पात्रों के अंतर का सृजन प्रतीत
होते हैं। यही कारण है कि जैनेंद्र के पात्र बाह्य वातावरण और परिस्थितियों
से अप्रभावित लगते हैं और अपनी अंतर्मुखी गतियों से संचालित। उनकी
प्रतिक्रियाएँ और व्यवहार भी प्रायः इन्हीं गतियों के अनुरूप होते हैं। इसी
का एक परिणाम यह भी हुआ है कि जैनेंद्र के उपन्यासों में चरित्रों की
भरमार नहीं दिखाई देती। पात्रों की अल्पसंख्या के कारण भी जैनेंद्र के
उपन्यासों में वैयक्तिक तत्वों की प्रधानता रही है। क्रांतिकारिता तथा
आतंकवादिता के तत्व भी जैनेंद्र के उपन्यासों के महत्वपूर्ण आधार है। उनके
सभी उपन्यासों में प्रमुख पुरुष पात्र सशक्त क्रांति में आस्था रखते हैं।
बाह्य स्वभाव, रुचि और व्यवहार में एक प्रकार की कोमलता और भीरुता की भावना
लिए होकर भी ये अपने अंतर में महान विध्वंसक होते हैं। उनका यह
विध्वंसकारी व्यक्तित्व नारी की प्रेमविषयक अस्वीकृतियों की प्रतिक्रिया के
फलस्वरूप निर्मित होता है। इसी कारण जब वे किसी नारी का थोड़ा भी आश्रय,
सहानुभूति या प्रेम पाते हैं, तब टूटकर गिर पड़ते हैं और तभी उनका बाह्य
स्वभाव कोमल बन जाता है। जैनेंद्र के नारी पात्र प्रायः उपन्यास में
प्रधानता लिए हुए होते हैं। उपन्यासकार ने अपने नारी पात्रों के
चरित्र-चित्रण में सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक दृष्टि का परिचय दिया है। स्त्री
के विविध रूपों, उसकी क्षमताओं और प्रतिक्रियाओं का विश्वसनीय अंकन
जैनेंद्र कर सके हैं। 'सुनीता', 'त्यागपत्र' तथा 'सुखदा' आदि उपन्यासों में
ऐसे अनेक अवसर आए हैं, जब उनके नारी चरित्र भीषण मानसिक संघर्ष की स्थिति
से गुज़रे हैं। नारी और पुरुष की अपूर्णता तथा अंतर्निर्भरता की भावना इस
संघर्ष का मूल आधार है। वह अपने प्रति पुरुष के आकर्षण को समझती है, समर्पण
के लिए प्रस्तुत रहती है और पूरक भावना की इस क्षमता से आल्हादित होती है,
परंतु कभी-कभी जब वह पुरुष में इस आकर्षण मोह का अभाव देखती है, तब
क्षुब्ध होती है, व्यथित होती है। इसी प्रकार से जब पुरुष से कठोरता की
अपेक्षा के समय विनम्रता पाती है, तब यह भी उसे असह्य हो जाता है।सन् १९२३ में वे नागपुर
चले गए और वहाँ राजनीतिक पत्रों में संवाददाता के रूप में कार्य करने लगे।
उसी वर्ष इन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और तीन माह के बाद छूट गए। दिल्ली
लौटने पर इन्होंने व्यापार से अपने को अलग कर लिया। जीविका की खोज में ये
कलकत्ते भी गए, परंतु वहाँ से भी इन्हें निराश होकर लौटना पड़ा। इसके बाद
इन्होंने लेखन कार्य आरंभ किया।२४ दिसंबर १९८८ को उनका निधन हो गया। प्रकाशित
कृतियाँ----उपन्यासः 'परख' (१९२९), 'सुनीता' (१९३५), 'त्यागपत्र' (१९३७),
'कल्याणी' (१९३९), 'विवर्त' (१९५३), 'सुखदा' (१९५३), 'व्यतीत' (१९५३) तथा
'जयवर्धन' (१९५६)। कहानी संग्रहः 'फाँसी' (१९२९), 'वातायन' (१९३०), 'नीलम
देश की राजकन्या' और वे' (१९५४)। अनूदित ग्रंथः 'मंदालिनी' (नाटक-१९३५),
'प्रेम में भगवान' (कहानी संग्रह-१९३७), तथा 'पाप और प्रकाश' (नाटक-१९५३)।
सह लेखनः 'तपोभूमि' (उपन्यास, ऋषभचरण जैन के साथ-१९३२)। संपादित ग्रंथः
'साहित्य चयन' (निबंध संग्रह-१९५१) तथा 'विचारवल्लरी' (निबंध संग्रह-१९५२)।
(सहायक ग्रंथ- जैनेंद्र- साहित्य और समीक्षाः रामरतन भटनागर।)
हिन्दी को एक पारदर्शी भाषा और भंगिमा दी, एक नया तेवर दिया, एक नया
`सिंटेक्स' दिया। आज के हिन्दी गद्य पर जैनेन्द्र की अमिट छाप है।--रवींद्र
कालिया जैनेंद्र के प्रायः सभी उपन्यासों में दार्शनिक और आध्यात्मिक
तत्वों के समावेश से दूरूहता आई है परंतु ये सारे तत्व जहाँ-जहाँ भी
उपन्यासों में समाविष्ट हुए हैं, वहाँ वे पात्रों के अंतर का सृजन प्रतीत
होते हैं। यही कारण है कि जैनेंद्र के पात्र बाह्य वातावरण और परिस्थितियों
से अप्रभावित लगते हैं और अपनी अंतर्मुखी गतियों से संचालित। उनकी
प्रतिक्रियाएँ और व्यवहार भी प्रायः इन्हीं गतियों के अनुरूप होते हैं। इसी
का एक परिणाम यह भी हुआ है कि जैनेंद्र के उपन्यासों में चरित्रों की
भरमार नहीं दिखाई देती। पात्रों की अल्पसंख्या के कारण भी जैनेंद्र के
उपन्यासों में वैयक्तिक तत्वों की प्रधानता रही है। क्रांतिकारिता तथा
आतंकवादिता के तत्व भी जैनेंद्र के उपन्यासों के महत्वपूर्ण आधार है। उनके
सभी उपन्यासों में प्रमुख पुरुष पात्र सशक्त क्रांति में आस्था रखते हैं।
बाह्य स्वभाव, रुचि और व्यवहार में एक प्रकार की कोमलता और भीरुता की भावना
लिए होकर भी ये अपने अंतर में महान विध्वंसक होते हैं। उनका यह
विध्वंसकारी व्यक्तित्व नारी की प्रेमविषयक अस्वीकृतियों की प्रतिक्रिया के
फलस्वरूप निर्मित होता है। इसी कारण जब वे किसी नारी का थोड़ा भी आश्रय,
सहानुभूति या प्रेम पाते हैं, तब टूटकर गिर पड़ते हैं और तभी उनका बाह्य
स्वभाव कोमल बन जाता है। जैनेंद्र के नारी पात्र प्रायः उपन्यास में
प्रधानता लिए हुए होते हैं। उपन्यासकार ने अपने नारी पात्रों के
चरित्र-चित्रण में सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक दृष्टि का परिचय दिया है। स्त्री
के विविध रूपों, उसकी क्षमताओं और प्रतिक्रियाओं का विश्वसनीय अंकन
जैनेंद्र कर सके हैं। 'सुनीता', 'त्यागपत्र' तथा 'सुखदा' आदि उपन्यासों में
ऐसे अनेक अवसर आए हैं, जब उनके नारी चरित्र भीषण मानसिक संघर्ष की स्थिति
से गुज़रे हैं। नारी और पुरुष की अपूर्णता तथा अंतर्निर्भरता की भावना इस
संघर्ष का मूल आधार है। वह अपने प्रति पुरुष के आकर्षण को समझती है, समर्पण
के लिए प्रस्तुत रहती है और पूरक भावना की इस क्षमता से आल्हादित होती है,
परंतु कभी-कभी जब वह पुरुष में इस आकर्षण मोह का अभाव देखती है, तब
क्षुब्ध होती है, व्यथित होती है। इसी प्रकार से जब पुरुष से कठोरता की
अपेक्षा के समय विनम्रता पाती है, तब यह भी उसे असह्य हो जाता है।सन् १९२३ में वे नागपुर
चले गए और वहाँ राजनीतिक पत्रों में संवाददाता के रूप में कार्य करने लगे।
उसी वर्ष इन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और तीन माह के बाद छूट गए। दिल्ली
लौटने पर इन्होंने व्यापार से अपने को अलग कर लिया। जीविका की खोज में ये
कलकत्ते भी गए, परंतु वहाँ से भी इन्हें निराश होकर लौटना पड़ा। इसके बाद
इन्होंने लेखन कार्य आरंभ किया।२४ दिसंबर १९८८ को उनका निधन हो गया। प्रकाशित
कृतियाँ----उपन्यासः 'परख' (१९२९), 'सुनीता' (१९३५), 'त्यागपत्र' (१९३७),
'कल्याणी' (१९३९), 'विवर्त' (१९५३), 'सुखदा' (१९५३), 'व्यतीत' (१९५३) तथा
'जयवर्धन' (१९५६)। कहानी संग्रहः 'फाँसी' (१९२९), 'वातायन' (१९३०), 'नीलम
देश की राजकन्या' और वे' (१९५४)। अनूदित ग्रंथः 'मंदालिनी' (नाटक-१९३५),
'प्रेम में भगवान' (कहानी संग्रह-१९३७), तथा 'पाप और प्रकाश' (नाटक-१९५३)।
सह लेखनः 'तपोभूमि' (उपन्यास, ऋषभचरण जैन के साथ-१९३२)। संपादित ग्रंथः
'साहित्य चयन' (निबंध संग्रह-१९५१) तथा 'विचारवल्लरी' (निबंध संग्रह-१९५२)।
(सहायक ग्रंथ- जैनेंद्र- साहित्य और समीक्षाः रामरतन भटनागर।)
(
(THIS INFORMATION IS TAKEN FROM A ONLINE HINDI MAGAZINE.I HAVE NOT WRITTEN THIS ARTICLE.)
अमरकांत की कहानी दोपहर का भोजन /F.Y.B.A. OPT.
'दोपहर का भोजन` अमरकांत द्वारा लिखित एक छोटी परंतु महत्वपूर्ण कहानी है। यह कहानी विडम्बना और करूणा की कहानी है। सिद्धेश्वरी नामक स्त्री अपने पति मुंशी चंन्द्रिका प्रसाद और तीन लड़कों (रामचन्द्र, मोहन और प्रमोद) के साथ आर्थिक तंगी में जीवन व्यतीत कर रही होती है। तंगी इतनी की हर कोई भरपेट खाना भी ना खा सके। पर इस विडंबना को घर का हर सदस्य एक दूसरे से छुपाता रहात है। दोपहर के भोजन को खाते समय जब माँ सिद्धेश्वरी बच्चों से अधिक रोटी खाने को कहती है तो वे बिगड़ जाते हैं। क्योंकि उन्हें भी पता है कि उनके अधिक खाने पर घर का कोई न कोई सदस्य भूखा ही रह जायेगा। शायद अंत के खानेवाली सिद्धेश्वरी ही। इसलिए कोई भी भर पेट नहीं खाता, पर भरपेट न खाने का कारण सभी भी स्पष्ट नहीं करना चाहता। इन सब के चलते अंत में सिद्धेश्वरी के हिस्से में एक रोटी बचती है। जिसमें से भी आधी को छोटे बेटे प्रमोद के लिए रखकर आधी ही खाती है।
इस तरह अपने जीवन के अभाव की विडम्बना को यह परिवार अपने में ही समेटे जिये जा रहा था। अमरकांत की इस कहानी के संदर्भ में यदुनाथ सिंह ने लिखा है कि, ''दोपहर का भोजन` के सीधे-सपाट घटनाक्रम में एक गृहस्वामिनी, सिद्धेश्वरी के भय और दुख की जो अन्तर्धारा प्रवाहित होती है वह आज के निम्न मध्यमवर्गीय परिवार की जीवनचर्या के मूल में प्रवाहित भय और दु:ख की वह अन्तर्धारा है जिसमें बहते हुए अनगिनत, परिवारों के असंख्य प्राणी, एक दूसरे से अपरिचित, अशांकित, वर्तमान के अभावों से पूरी तरह टूटे, भविष्य को लेकर दहशत से भरे न केवल पारिवारिक स्तर पर बिखरते बल्कि सामाजिक स्तर पर भावात्मक दृष्टि से टूटते सम्बन्ध सूत्रों को संदर्भित करते हैं। परंपरा प्राप्त भावात्मक संबंध सूत्रों और उनके माध्यम से बिखरने को आ रहे ढाँचे को कायम रखने की एक निष्फल दयनीय चेष्टा पूरे संदर्भ को बेहद कारूणिक बना जाती है।``5
अमरकांत की यह कहानी बहुत प्रसिद्ध हुई। स्वयं अमरकांत भी यह माने हैं कि यह कहानी उन्होंने पूरे मनोयोग से लिखी है। कहानी छोटी है। इस पर भी अमरकांत जी का कहना है कि, इस कहानी में जितनी मौन की जरूरत थी उतनी भाषा की नहीं।``6 हिंदी के अन्य समीक्षकों ने भी अमरकांत की इस कहानी की बडी प्रशंसा की है।
पीच.डी. थेसिस /कथाकार अमरकांत : संवेदना और शिल्प
अध्याय - 1
क) | अमरकांत : संक्षिप्त जीवन वृत्त | |
1. | जन्म | |
2. | परिवार | |
3. | शिक्षा-दीक्षा | |
4. | रहन-सहन और स्वभाव | |
5. | सेवा मार्ग | |
6. | संघर्ष | |
7. | व्यक्तित्व की प्रमुख विशेषताएँ | |
8. | पुरस्कार एवम् सम्मान | |
ख) | अमरकांत : विचारधारा एवम् साहित्यिक दृष्टि | |
1. | तरुण कवि के रूप में | |
2. | साहित्यिक वातावरण | |
3. | साहित्यिक प्रेरणा स्रोत | |
4. | प्रभावित करने वाली विचार धाराएँ | |
5. | कथा लेखन क) कहानी | |
ख) उपन्यास | ||
6. | साहित्यिक दृष्टि |
क) अमरकांत : संक्षिप्त जीवन वृत्त
1. जन्म :
उत्तर प्रदेश के सबसे पूर्वी जिले बलिया में एक तहसील है - 'रसड़ा`। इस रसड़ा तहसील के सुपरिचित गाँव 'नगरा` से सटा हुआ एक छोटा सा गाँव और है। यह गाँव है - 'भगमलपुर`। देखने में यह गाँव नगरा गाँव का टोला लगता है।
भगमलपुर गाँव तीन टोलों में बँटा है। उत्तर दिशा की तरफ का टोला यादवों (अहीरों) का टोला है तो दक्षिण में दलितों का टोला (चमरटोली)। इन दोनों टोलों के ठीक बीच में कायस्थों के तीन परिवार थे। ये तीनों घर एक ही कायस्थ पूर्वज से संबद्ध कालांतर में तीन टुकड़ों में विभक्त होकर वहीं रह रहे हैं।
इन्हीं कायस्थ परिवारों में से एक परिवार था सीताराम वर्मा व अनन्ती देवी का। इन्हीं के पुत्र के रूप में 1 जुलाई 1925 को अमरकांत का जन्म हुआ। अमरकांत का नाम श्रीराम रखा गया। इनके खानदान में लोग अपने नाम के साथ 'लाल` लगाते थे। अत: अमरकांत का भी नाम 'श्रीराम लाल` हो गया। बचपन में ही किसी साधू-महात्मा द्वारा अमरकांत का एक और नाम रखा गया था। वह नाम था - 'अमरनाथ`। यह नाम अधिक प्रचलित तो ना हो सका, किंतु स्वयं श्रीराम लाल को इस नाम के प्रति आसक्ति हो गयी। इसलिए उन्होंने कुछ परिवर्तन करके अपना नाम 'अमरकांत` रख लिया। उनकी साहित्यिक कृतियाँ इसी नाम से प्रसिद्ध हुई।
अपने नामकरण की चर्चा करते हुए स्वयं अमरकांत ने लिखा है कि, ''मेरे खानदान के लोग अपने नाम के साथ 'लाल` लगाते थे। मेरा नाम भी श्रीराम लाल ही था। लेकिन जब हम लोग बलिया शहर में रहने लगे तो चार-पाँच वर्ष बाद वहाँ अनेक कायस्थ परिवारों में 'लाल` के स्थान पर 'वर्मा` जोड़ दिया गया और मेरा नाम भी श्रीराम वर्मा हो गया। ऐसा क्यों किया गया, इसे उद्घाटित करने के लिए भारत के बहुत से जातिवादी कचरे को उलटना - पुलटना पड़ेगा। बस इतना ही कहना पर्याप्त है कि जब मैंने लेखन का निश्चय कर लिया तो 'लाल` या 'वर्मा` अथवा किसी जाति सूचक 'सरनेम` से मुक्ति पाने के लिए अपना नाम 'अमरकांत` रख लिया। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि मेरे दो नाम रखे गए थे, जिनमें एक 'अमरनाथ` भी था, जिसे एक साधू ने दिया था। यह नाम प्रचलित तो नहीं था, लेकिन मैंने इसमें हल्का संशोधन करके साहित्यिक नाम के रूप में इसे मान्यता दिला दी।``1
बचपन की यादों का जिक्र करते हुए अमरकांत ने अपने कई लेखों में अनेकानेक घटनाओं का सविस्तार वर्णन किया है। ऐसी ही एक घटना है उनके कर्णछेदन संस्कार से संबंधित। इस घटना का वर्णन करते हुए अमरकांत स्वयं लिखते हैं कि, ''कान छेदने के लिए एक बारिन आई थी, जिसके पास कपड़े के थैले में कुछ ज़रूरी सामान थे। वह किसी दूसरे कमरे में बैठी थी, इसलिए मैं देख नहीं सका कि वह कौन-सी तैयारी कर रहीं है। लेकिन कुछ फुसफुसाहटों - भुनभुनाहटों तथा संकेतों से मैं कुछ भाँप तो गया ही था। मैं जब मन-ही-मन डरा हुआ था, उसी समय मेरे दोनों हाथों में एक-एक लड्डू खाने के लिए दे दिया गया। दोनों हाथों में लड्डू क्योें? इसलिए कि जब कार्रवाई हो तो मैं हाथ चलाकर कोई व्यवधान पैदा न कर सकूँ। काम निर्बाध हो भी गया, क्योंकि जब मैं उनकी चाल में आकर लड्डू खाने लगा तो बारिन ने चुपके-से पीछे-से आकर ताँबे के एक - पतले तार से मेरे दोनों कान, एक-के-बाद-एक छेद ही दिए। मैं रोया तो जरुर, लेकिन दादी के पुचकारने से कुछ कर न सका।``2
इस तरह के कई अन्य प्रसंग भी हैं जिनका अमरकांत ने बड़े ही रुचिपूर्वक वर्णन किया है। अमरकांत का जन्म साधारण कायस्थ परिवार में हुआ था और सभी परंपरागत संस्कारों के साथ-साथ साहित्य व लेखन का संस्कार अमरकांत ने स्वयं अर्जित किया। उनके घर में किसी तरह का कोई साहित्यिक वातावरण नहीं था। पुस्तकों को पढ़ते - पढ़ते उन्होंने अनुभव किया की वे लिख सकते हैं; और उन्होनें लेखन कार्य प्रारंभ कर दिया।
2. परिवार
अमरकांत जी के परिवार के लोग मध्यम कोटि के काश्तकार थे। आपके बाबा - गोपाल लाल जी - मुहर्रिर थे। आपके पिताजी - सीताराम वर्मा ने इलाहाबाद में रहकर पढ़ाई की थी। यहीं की कायस्थ पाठशाला से उन्होंने एफ.ए. (आज का इन्टरमीडिएट) किया। फिर उन्होंने मुख्तारी की परीक्षा पास की और बलिया कचहरी में प्रैक्टिस करने लगे थे। आप के पूर्वज जौनपुर के किसी नवाब के सिपहसालार थे। लेकिन किन परिस्थितियों में उन्हें भगमलपुर आकर बसना पड़ा इस संबंध में स्वयं अमरकांत जी को भी कुछ ज्ञात नहीं।
अमरकांत जी के पिताजी का सनातन धर्म में गहरा विश्वास था, किन्तु वे कर्मकांडो व धार्मिक रुढ़ियों में विश्वास नहीं करते थे। उनके आराध्य देव थे राम और शिव। आपका गला भी बड़ा अच्छा था। संगीत में आपकी रुचि थी। झूठ से आपको घृणा थी। कटु सत्य बोलने में भी आप हिचकते नहीं थे। शराब और जुए के भी आप विरोधी थे। आपने परिवार के प्रति अपने दायित्वों को अच्छी तरह से निभाया। सभी बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलवायी। जीवन भर आप बहुत सक्रिय रहे। आप 80 से कुछ अधिक वर्ष तक जीवित रहे।
अमरकांत जी के पिताजी उर्दू और फारसी के ज्ञाता थे। उन्हें - हिन्दी का कामचलाऊ ज्ञान था। वे शान - शौकत से रहना पसंद करते थे। अपनी युवा अवस्था में उन्होंने घर पर ही पहलवानों का प्रबंध करके कसरत और कुश्ती में निपुणता हासिल की थी। अपने बच्चों से उन्हें कोई खास उम्मीद नहीं थी, सिवाय इसके कि वे कम से कम हाई स्कूल पास कर लें और फिर उनकी शादी-विवाह की जिम्मेदारी से भी वे मुक्त हो जायें। और बच्चे अपनी जिम्मेदारी समझते हुए नौकरी-चाकरी का काम शुरू कर दें। और लड़कियों के संबंध में उनकी राय थी कि लड़कियों की शादी जल्दी करा देना ही श्रेयस्कर होता है।
अपने पिता के संदर्भ में अमरकांत जी लिखते हैं कि, ''वह काफी भाव-प्रवण और उदार व्यक्ति थे और उनकी भाव-प्रवणता नाटकीयता को स्पर्श करने लगती थी। उनका गुस्सा बहुत जबरदस्त था, लेकिन वह बहुत जल्दी पश्चाताप तथा करुणा से विगलित हो जाते थे। फिर वह बच्चे की तरह रोने लगते और छोटे-से-छोटे बच्चे से क्षमा माँग लेते। फिर उनका एक लम्बा और करुण भाषण भी सुनना पड़ता। साल में एक या दो बार उसे अपने पिताजी का एक दूसरे ढंग का भी लेक्चर सुनना पड़ता, जिसका मुख्य विषय था कभी नागा न करना और रोज स्कूल जाना। इसके बाद वह 'नागा` विषय पर दो या चार लाइनें गाकर सुनाते थे। अद्भुत स्वर था उनका और बहुत अच्छा गाते थे वह। बुलन्द, चिकनी और फिसलती हुई आवाज, जो दूर तक सुनाई देती थी। मन्दिर में जब वह कोई भजन गाते तो सारा मन्दिर गूँजने-गमकने लगता। वह निश्चित रूप से कह सकता है कि यदि उनकी अच्छी ट्रेनिंग होती तो वह फैयाज खां की टक्कर के संगीतकार होते। सच्चाई पर वह बेहद जोर देते थे और खरी बात मुँह पर ही........ बिना किसी दुर्भावना के - कह देते थे।``3
अपने पिता की सच्चाई और ईमानदारी के एक प्रसंग का वर्णन करते हुए अमरकांत ने लिखा है कि एक बार उनके (अमरकांत के पिता के) छोटे भाई बाजार के फलवाले के यहाँ से कोई फल चोरी से लेकर घर आ गये थे। यह बात जब अमरकांत के पिताजी को मालूम पड़ी तो उन्हें बहुत गुस्सा आया। उन्होंने छोटे भाई को हिदायत दी की वे फल वापस देकर आयें। और जब उनके भाई बाजार जाकर फल वापस कर आये तो वे अपने भाई को गले लगाकर खूब रोये।
अमरकांत का परिवार बड़ा था। आप परिवार में सबसे बड़े थे। अमरकांत की एक बड़ी बहन थी जो अमरकांत के बचपन में ही बीमारी से मर गई थी। उनका नाम गायत्री था। अमरकांत को लेकर परिवार में सात भाई और एक बहन (चौथे नंबर पर) थी जिन्हें पिता सीताराम वर्मा ने योग्य तरीके से पढ़ाया - लिखाया।
भगमलपुर स्थित अमरकांत का पैतृक मकान मिट्टी का बना हुआ बड़ा मकान था। मकान के अंदर दो आँगन थे। पहला आँगन दूसरे की अपेक्षा बड़ा था। दूसरा आँगन एक तरह से घर का पिछवाड़ा (पीछे का हिस्सा) था। इस पिछवाड़े के हिस्से में एक कुआँ और शौचालय था। घर का यह हिस्सा घर की औरतों की सुविधा के लिए था। घर के पहले आँगन के चारों तरफ कई कमरे बने हुए थे। कोठिला, पूजाघर, रसोई घर आदि कई कमरे थे। घर से बाहर निकलते समय एक बड़े से दालान से होकर गुजरना पड़ता था। परिवार के सदस्यों की संख्या भी अधिक थी। एक बड़े संयुक्त परिवार के लिए इस तरह के मकान आवश्यक भी हैं। भगमलपुर के संपन्न परिवारों में से अमरकांत का परिवार भी एक था।
3. शिक्षा-दीक्षा
अपने शिक्षा-संस्कार के बारे में अमरकांत जी लिखते हैं कि, ''एक दिन मुझसे अक्षराम्भ कराया गया। इसको शिक्षा-संस्कार कहा जा सकता है। यह एक लघु समारोह ही था। बड़े आँगन में चौक पूरा गया था, जिसके बगल में मुझे नई पोशाक में एक पीढ़े पर बिठाया गया था। हमारे पुरोहित जी महाराज चौक की दूसरी तरफ बैठे थे। उन्होंने अक्षत, फूल, पान, सुपारी, जल आदि से पूजा-पाठ किया और मंत्रोच्चारण किए। वह मुझसे भी यह सब कराने के लिए मेंढ़क की तरह फुदक कर मेरे पास आ जाते थे। फिर वह मुझसे बोले, 'कहो, 'रामागति देहू सुमति।` मेरे बगल में घर के लोग भी खड़े थे, उनकी मदद से मैंने तीन बार वही कहा। फिर पण्डित जी ने मेरा हाथ पकड़ कर स्लेट पर 'राम, राम` और 'क, ख` लिखवाया। फिर माथे पर रोली का टीका लगा और चौक को, मुझसे सिर झुकाकर हाथ जोड़वाया गया। पूजा-समाप्ति के बाद कोई पकवान और सम्भवत: मिठाई भी खाने को मिली थी।``4
अमरकांत का 'नगरा` के प्राइमरी स्कूल में नाम लिखाया गया। इस विद्यालय का भवन छोटा पर पक्का था। उस विद्यालय के हेडमास्टर एक मौलवी जी थे जो हमेशा हाँथ में छड़ी लेकर घूमते थे। यहीं से अमरकांत की प्रारंभिक शिक्षा आरंभ हुई। लेकिन यह प्रारंभिक शिक्षा भी अमरकांत के लिए आसान नहीं थी। अपने इन्हीं दिनों की चर्चा करते हुए अमरकांत ने लिखा है कि, ''आरम्भ में ढेलू बाबा मुझे कंधे पर बिठाकर स्कूल ले जाते और छुट्टी के समय आ भी जाते। लेकिन कुछ समय बाद छुट्टी के समय में अनियमितता भी होने लगी। तब मुझे लड़कों के झुंड के साथ इमली के झंखाड़ वृक्षों तक आना पड़ता। वहाँ 'नगरा` गाँव में जाने के लिए दाहिनी तरफ रास्ता था, जिससे होकर वे सभी चले जाते और मैं अकेला रह जाता। मेरे गाँव का कोई लड़का स्कूल जाता ही न था, इसलिए कोई सहयात्री नहीं होता। सड़क भी एकदम सुनसान थी। मुझे बड़ा डर लगता, खास तरह से उन झंखाड़ वृक्षों से। लड़कों ने ही बताया था कि उन पर भूत रहते हैं और उनके तनों के खोड़लों में अजगर - साँप।``5
इन परिस्थितियों में अमरकांत को अधिक दिनों तक नहीं रहना पड़ा। शीग्र ही वे रहने के लिए पिता सीताराम वर्मा के पास बलिया शहर में परिवार के कुछ लोगों के साथ आ गये। यहाँ पर बलिया शहर के तहसीली स्कूल में अमरकांत का नाम कक्षा 'एक` में लिखा दिया गया। यहाँ पर अमरकांत कक्षा 'दो` तक ही पढ़ पाये, बाद में उनका नाम गवर्नमेन्ट हाई स्कूल में, कक्षा 'तीन` में लिखाया लिया। यहाँ के प्रधानाध्यापक श्री महावीर प्रसाद जी थे।
तीसरी कक्षा में अमरकांत का प्रवेश सन 1933 ई. के जुलाई में, एक प्रवेश-परीक्षा के पश्चात हो पाया था। उन दिनों बलिया शहर में आर्य समाज की अच्छी पकड़ थी। लोगों के बीच आर्य समाज का अच्छा प्रभाव था। आर्य समाज के ही एक पदाधिकारी बाबू जानकी प्रसाद जी के सफल प्रयासों के कारण ही एक 'चलता पुस्तकालय` की स्थापना हो पायी थी। इस 'चलता पुस्तकालय` के लाइब्रेरियन एक गरीब नवयुवक थे। हर पन्द्रह दिन में दो पुस्तकें वे हर सदस्य के घर पहुँचाते और पढ़ी किताबें वापस ले जाते। अमरकांत के पिताजी को भी इस 'चलता पुस्तकालय` का सदस्य बनाया गया था। लेकिन वे अपने काम में इतना व्यस्त रहते थे कि उन्हें इन किताबों की तरफ देखने का भी मौका नहीं मिलता था। पर इन किताबों ने अमरकांत का ध्यान अपनी तरफ खींचा। अमरकांत की रुचि इन किताबों में बढ़ने लगी। फिर क्या था, वे बड़े चाव से इन किताबों को पढ़ने लगे। रात-रात भर जागकर वो इन किताबों को पढ़ते। घर के लोगों से उन्हें डाँट भी पड़ती। पर वे किसी की बातों पर ध्यान न देकर निरंतर पढ़ते रहते।
पाठ्या-पुस्तकें पढ़ने में अमरकांत का मन नहीं लगता था। अमरकांत के घर जो मास्टर साहब पढ़ाने आते थे, वो भी अपने अध्यापन कार्य से अधिक, आत्मप्रशंसा व गप्पबाजी किया करते थे। इसकारण भी शायद अमरकांत पाठ्या पुस्तकों की ओर आकर्षित नहीं हो पाये। 'चलता पुस्तकालय` से आने वाली पुस्तकों में कहानियाँ, उपन्यास, हास्य-व्यंग्य की रचनाएँ, योगाभ्यास तथा धार्मिक और ऐतिहासिक किताबें हुआ करती थीं।
उन दिनों बलिया शहर में बिजली की व्यवस्था नहीं थी। लालटेन व ढिबरी के रोशनी के सहारे अमरकांत रात-रात भर इन किताबों को पढ़ते रहते थे। इन किताबों में कई अनूदित किताबें भी होती थीं। यहीं पर अमरकांत ने रवीन्द्रनाथ ठाकुर, परशुराम, शरत् व बंकिम के साहित्य का परिचय प्राप्त किया। इन पुस्तकों ने अमरकांत की भावभूमि और विचार को एक खास दिशा प्रदान की।
सन 1938-39 ई. में अमरकांत कक्षा आठ में थे, और इसी समय उनके विद्यालय में हिंदी के नए शिक्षक के रूप में बाबू गणेश प्रसाद का आगमन हुआ। वे साहित्य के अच्छे जानकार थे और कभी-कभी निबंध की जगह कहानी लिखने को कहते थे। बच्चों को हस्तलिखित पत्रिका भी निकालने के लिए प्रेरित किया करते थे।
सन 1946 ई. में अमरकांत ने बलिया के सतीशचन्द्र इन्टर कॉलेज से इन्टरमीडियेट की पढ़ाई पूरी कर बी.ए. इलाहाबाद विश्वविद्यालय से करने लगे। बी.ए. पास करने के बाद अमरकांत ने पढ़ाई बंद कर नौकरी की तलाश शुरू कर दी। बी.ए. पास करने के बाद कोई सरकारी नौकरी करने के बदले उन्होंने पत्रकार बनने का निश्चय कर लिया था। उनके अंदर यह विश्वास बैठ गया था कि हिंदी सेवा पर्याय है देश सेवा का। वैसे अमरकांत के मन में राजनीति के प्रति एक तरह का निराशा का भाव भी आ गया था। यह भी एक कारण था जिसकी वजह से अमरकांत पत्रकारिता की तरफ मुडे।़ अमरकांत के चाचा उन दिनों आगरा में रहते थे। उन्हीं के प्रयास से दैनिक 'सैनिक` में अमरकांत को नौकरी मिल गयी।
इस तरह अमरकांत के शिक्षा ग्रहण करने का क्रम समाप्त हुआ और नौकरी का क्रम प्रारंभ हुआ।
4. रहन-सहन और स्वभाव
अमरकांत के पिता अपने गाँव के गिने-चुने संपन्न लोगों में से एक थे। ठाट-बाट से रहना उन्हें पसंद था। गाँव का पैतृक निवास कच्चा पर बड़ा था। किसी चीज की कोई कमी नहीं थी। घर में नौकर चाकर भी थे। अपनी पारिवारिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने में यह परिवार पूरी तरह सक्षम था।
अमरकांत बचपन में घर के अंदर अलग तरह का व्यवहार करते और घर के बाहर अलग। इस तरह 'घर के अंदर` और 'घर के बाहर` अमरकांत के दो रूप थे। घर के बाहर वे बेहद शर्मीले व चुप्पे किस्म के बालक थे। लेकिन घर के अंदर की स्थिति बिलकुल अलग थी। उन्हें बचपन में अपने छोटे भाइयों की नाक पकड़कर मलते हुए उसे लाल कर देने में बड़ा मजा आता था। घर के नौकर छबीला को लंगी लगाकर गिराने में भी अमरकांत पीछे नहीं रहते थे। उन्हें खेल-कूद का भी बड़ा शौक था। हॉकी - फुटबाल, गुल्ली - डंडा, चिक्का - कबड्डी आदि कई खेलों में वो भाग लेते थे। अमरकांत को बचपन में लड़कियों के साथ खेलना बड़ा अच्छा लगता था, पर कई बार लड़कियाँ उन्हे चिढ़ाकर भगा देती थीं।
अमरकांत बचपन से ही बड़े संवेदनशील रहे। अपनी बड़ी बहन गायत्री की अर्थी को नम आँखों से चुपचाप मन मारकर अमरकांत देखते रहे थे। मानो जैसे उन्होंने अपनी छोटी सी उम्र में ही जीवन व मृत्यु के सत्य को समझने की कोशिश कर रहे हों। बिमार बहन के जिंदा रहने पर उसे चुपके से अचार खाने को देते थे।
अमरकांत से किसी का दुख देखा नहीं जाता था। आपस में झगड़ा व मनमुटाव उन्हें बिलकुल पसंद नहीं था। बचपन में अमरकांत को मजदूरों की स्थिति को देखकर बड़ा दुख होता था। मजदूरों के पहनावे, उनके दुबले-पतले शरीर और दिन भर की जी तोड़ मेहनत के बाद भी मजदूरों का एक आना भी न कमा पाने वाली स्थितियों को देखकर अमरकांत को बड़ा दुख होता था।
अमरकांत ने लिखा भी है कि उनका मन सबसे अधिक उस समय लगता जब दिन भर जी तोड़ मेहनत करके मजदूर शाम को हिसाब - किताब के लिए इकट्ठा होते। उनके शरीर पर जो कपड़ा होता, उसकी हालत देखकर उसे 'चिरकुट - चिथड़ा` से जादा कुछ भी नहीं कहा जा सकता था। मजदूरों के दुबले - पतले शरीर, चेहरे पर गाल अंदर की तरफ धँसे हुए, चेहरे की हडि्डयाँ बाहर की तरफ निकली हुई होती थी। अमरकांत उस समय तक कुछ - कुछ गिनती और पहाड़ा सीख चुके थे। उन दिनों मजदूरों को उनकी मजदूरी कौड़ियों के रूप में प्रदान की जाती थी। पाई छोटा सा ताँबे का सिक्का होता था, जिसे 'दोकड़ा` भी कहते थे। बारह पाई के बराबर एक 'आना` होता व सोलह आनों का एक 'रुपया`। पर लेखक को ऐसा कोई दिन याद नहीं जब कोई मजदूर दिन-भर की मेहनत के बाद एक रुपया भी कमा पाता हो। मजदूरों की इस तरह की हालत देखकर अमरकांत उदास हो जाया करते थे।
घर के अंदर अमरकांत एक आज्ञाकारी बालक थे। अपने से बड़ों की हर आज्ञा का वे पालन किया करते थे। किताबें बड़े चाव से पढ़ते थे। अपने आस-पास के वातावरण के प्रति हमेशा ही सजग रहते। बचपन से शुरू-शुरू में शरत्चंद्र के उपन्यासों से प्रभावित होकर कोरी भावुकतापूर्ण रोमांटिक कहानियों से अमरकांत ने अपना लेखन कार्य शुरू किया। लेकिन जैसे-जैसे अमरकांत बड़े हुए उन्होंने समाज और राष्ट्र की यथार्थ स्थिति को समझा। आगे चलकर उनका लेखन भी यथार्थ के अधिक करीब हो गया।
धीरे-धीरे अमरकांत का परिचय स्थानीय क्रांतिकारियों व उनके क्रांतिकारी साहित्य से हुआ। कई स्थानीय क्रांतिकारी मित्रों ने मिलकर राजनीतिक सतर्कता दिखायी। पर अमरकांत और उनके मित्रों की यह सतर्कता हास्यास्पद ही कही जायेगी। ऐसी ही कुछ घटनाओं को थोड़े परिवर्तन के साथ अमरकांत ने अपने उपन्यास 'सूखा पत्ता` में चित्रित किया है। उपन्यास में दिखाया गया है कि किस तरह चीनी और बोरे चुराकर युवकों का एक दल इसे महान क्रांतिकारी घटना मानता है।
हाई स्कूल पास करने के बाद अमरकांत अपने कुछ मित्रों के माध्यम से कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के संपर्क में आये। उन दिनों इन पार्टियों की कक्षाएँ चलती थीं। यहीं से अमरकांत को कई छोटी-छोटी पुस्तकें पढ़ने को मिली। स्वतंत्रता, समाजवाद, समाजवादी देश सोवियत रूस, वैज्ञानिक समाजवाद, आचार्य नरेन्द्र देव और राहुल जी के विचारों एवम् साहित्य से अमरकांत का परिचय हुआ। गांधी और नेहरू जी की आत्मकथाएँ अमरकांत ने पढ़ी। नेहरू जी भी समाजवादी हैं, अपने अध्ययन के द्वारा जब अमरकांत को यह पता चला तो उन्हें बड़ी प्रसन्नता का अनुभव हुआ।
अब अमरकांत खद्दर पहनने लगे थे। गाँधीजी की कई बातें अमरकांत को पसंद नहीं आती थी। लेकिन यह समझ जरूर विकसित हो गई थी कि आजादी के लिए आतंकवादी कारवाइयों की जरूरत नहीं थी बल्कि देश की आम जनता तक पहुँचकर उन्हें संगठित और संघर्षशील बनाने की जरूरत थी। गांधी और नेहरू को अमरकांत एक दूसरे का पूरक मानते थे। जयप्रकाश नारायण के प्रति भी अमरकांत के मन में श्रद्धा थी। उनकी बातें व साहित्य अमरकांत को रोमांचित कर देते थे। अमरकांत जयप्रकाश नारायण की पार्टी के सदस्य थे अत: पार्टी के सर्वोच्च नेता के प्रति सम्मान स्वाभाविक भी था।
समाजवाद, स्वतंत्रता, आर्थिक स्वतंत्रता जैसी बातों को आत्मसाथ कर अमरकांत बड़े हो रहे थे। अपनी कल्पनाओं में अमरकांत अपने आप को सबसे आगे पाते। बड़े-बड़े महान कार्य के लिए तत्पर रहते। अमरकांत की इन कल्पनाओं और स्वपनों में दो चीजें अनिवार्य रूप से रहती। पहली 'लड़की` और दूसरी 'रोमान्टिसिज्म`। अमरकांत के ऊपर शरदचन्द्र का काफी प्रभाव रहा। उन्होंने शरदचन्द्र की ही तर्ज पर प्रेम और करूणा से भरी कहानियाँ लिखनी प्रारंभ की। इन दिनों अमरकांत की अपनी मानसिक स्थिति बहुत स्पष्ट नहीं थी, कारण यह था की वे समझ नहीं पा रहे थे की आखिर उन्हें क्या करना है? मन कभी निराश से भर जाता तो कभी काल्पनिक प्रेम में डूब जाता। जब ये बातें हास्यास्पद लगने लगती तो उन्हें देश की चिंता होने लगती। एक अजीब मानसिक द्ंवद्व से अमरकांत जूझ रहे थे। वो यह निर्णय नहीं कर पा रहे थे कि आखिर उन्हें करना क्या है? उन्हें जाना किस दिशा में है? साहित्य की सेवा की बात थोड़ी स्पष्ट जरूर थी पर वह भी किस रूप में करनी है इस बात को लेकर अमरकांत उन दिनों असमंजस की स्थिति में रहे।
सन 1942 में जब महात्मा गांधी ने 'करो या मरो` का नारा दिया, तो उसका पूरे देश में बहुत प्रभावशाली असर देखने को मिला। देश के अनगिनत छात्रों ने पढ़ाई छोड़ देने का निश्चय किया। यह निश्चय करने वालों में अमरकांत भी एक रहे। गांधी जी का अमरकांत पर बहुत तगड़ा प्रभाव था। वे अपने आपको पूरी तरह पवित्र रखना चाहते थे। ठीक गांधीजी की तरह। पर इन सब प्रयासों में कई बार उन्होंने आत्महत्या तक की ठान ली। स्वयं अमरकांत लिखते हैं कि, ''गांधी जी के कारण ही वह पाप-पुण्य के फेर में भी पड़ गया। वह शारीरिक एवं मानसिक रूप से अपने को पूर्ण पवित्र रखना चाहता था, पर बार-बार उसे भावनाएँ दबोच लेती थीं। वह जितनी ही महानता की उँचाइयों पर जाना चाहता था, उतना ही वह अपने को नीचे जाता हुआ महसुस करता था। वह सेक्स और प्रेम की भावनाओं से लगातार लड़ रहा था। उसने अपने अंदर से हर प्रकार की महत्वाकांक्षा निकालने की कोशिश की और उसके लिए अपने प्राकृतिक चिकित्सा, गांधीवादी एवं मानसिक रूप से वह इसका भयंकर असर हुआ और वह आत्महत्या का ख्वाब देखने लगा।``6
इन निराशा के दिनों में ही अमरकांत ने डायरी लिखना शुरू किया। दिन भर जो भी उनके साथ होता वे उसे डायरी में लिखने लगे। निश्चय तो था ब्रिटिश सरकार से लड़ने का। लेकिन इन दिनों अमरकांत अपने आप से ही लड़ रहे थे। अपने आप को पूरी तरह अनुपयोगी समझ रहे थे। अपने प्रति हीन भावनाओं से भरे हुए थे। सन 1946 में जब यह तँय हो गया कि भारत को स्वतंत्रता मिल जायेगी तब उन्होंने अपनी पढ़ाई पुन: प्रारंभ की। इन्टर किया और अपने विवाह की भी स्वीकृति प्रदान कर दी। आजादी तो हमंें मिली पर वह जिस रूप में मिली उसने कई लोगों को निराश किया। विभाजन और विभाजन के परिणामस्वरूप जिस कत्ले आम का दौर पूरे देश में चला उसने अमरकांत को अंदर तक झकझोर के रख दिया।
इसके बाद जब अमरकांत ने देखा की आजादी के बाद लोग गिरगिट की तरह रंग बदल रहे हैं तो उन्हें और कष्ट हुआ। भाषावाद, क्षेत्रवाद, संप्रदायवाद, जातिवाद, अलगाववाद, फिरकापरस्ती, काला बाजारी, गुटबाजी और भ्रष्टाचार जैसी बातों ने अमरकांत को निराश किया। उनके सामने से रोमांटिसिज्म के रंगीन पर्दे हटने लगे और अमरकांत का लेखन यथार्थ की तरफ मुड़कर अधिक पैना होने लगा।
अमरकांत का रचनात्मक जीवन अपनी पूरी गंभीरता के साथ प्रारंभ हुआ। जिन साहित्यकारों को अब तक वे पढ़ते थे या अपने कल्पना लोक में देखते थे उन्ही के बीच स्वयं को पाकर अत्यंत प्रसन्न हुए। पत्र-पत्रिकाओं में नौकरी का क्रम भी प्रारंभ हो गया था। लेकिन सन 1954 में अमरकांत हृदय रोग के कारण बिमार पड़े और नौकरी छोड़कर लखनऊ चले गये। एक बार फिर निराशा ने उन्हें घेर लिया। अब उन्हें अपने जीवन से कोई उम्मीद नहीं रही। पर लिखने की आग कहीं न कहीं अंदर दबी हुई थी अत: उन्होनें लिखना प्रारंभ किया और उनका यह कार्य आज भी जारी है।
अमरकांत को लेखन के द्वारा जीवन का एक सार्थक आधार मिल गया। अमरकांत अपने बारे में खुद ही कहते हैं कि, ''.......... उसमें शारीरिक मानसिक एवं आर्थिक क्षमताएँ बहुत नहीं थीं, पर उसे संतोष था कि वह अपने देश की साधारण जनता के साथ था, वह उनकी लड़ाई में शामिल था - अन्याय, शोषण एवम् निर्धनता से मुक्त होने की लड़ाई। उसको अपने देश के लोगों से प्यार था। उनका साहस, उनकी उद्भुत जीवन-शक्ति, त्याग-बलिदान और बरदाश्त करने की उनकी क्षमता, उनकी उदारता और विनम्रता, उनका आलस्य, हार को जीत में परिवर्तित करने की उनकी आदत, उनका साहस और उनकी विलक्षण प्रतिभा। उसके जीवन को एक सार्थक आधार मिल गया था।``7
उम्र के इस पड़ाव पर भी अमरकांत का लेखन कार्य जारी है। मई 2006 में मैं इलाहाबाद स्थित उनके निवास पर जब साक्षात्कार हेतु पहुँचा तो कई नई बातें ज्ञात हुई। जैसे की 'बहाव` नामक पत्रिका का अमरकांत के संपादकत्व में निकलना। पहला अंक निकल चुका था और अमरकांत अपने छोटे पुत्र अरविंद के साथ मिलकर दूसरे अंक को निकालने की तैयारी में थे। अमरकांत ने बताया कि वे एक नाटक भी लिखना चाह रहे हैं। एक और पुस्तक 'खबर का सूरज आकाश में` पर भी उनका कार्य जारी था। इसके अतिरिक्त विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के लिए भी अमरकांत नियमित रूप से लिखते रहते हैं। अभी वे बहुत कुछ लिखना चाहते हैं किंतु अब उनका स्वास्थ उनका साथ नहीं दे रहा।
5. सेवा कार्य
प्रयाग विश्वविद्यालय से बी.ए. करने के बाद अमरकांत ने निश्चय कर लिया था कि उन्हें हिंदी साहित्य की सेवा करनी है। मन में पत्रकार बनने की इच्छा थी। और उन्होनें आगरा शहर से निकलने वाले दैनिक पत्र 'सैनिक` से अपनी नौकरी की शुरूआत की। 'सैनिक` के संपादकीय विभाग में अमरकांत को काम मिला था।
यहीं पर अमरकांत की मुलाकात श्री विश्वनाथ भटेले से हुई जो अमरकांत के साथ 'सैनिक` में ही कार्यरत थे। श्री विश्वनाथ भटेले अमरकांत को अपने साथ आगरा के प्रगतिशील लेखक संघ की बैठक में ले जाने लगे। इन्हीं 'बैठकों` में अमरकांत की मुलाकात डॉ. रामविलास शर्मा, राजेन्द्र यादव, रवी राजेन्द्र व रघुवंशी जैसे साहित्यकारों से हुई। अमरकांत ने अपनी पहली कहानी 'इंटरव्यू` इसी प्रगतिशील लेखक संघ में सुनायी जिसे सभी लोगों ने सराहा।
आगरे के बाद अमरकांत इलाहाबाद आ गये और वहाँ से निकलने वाले 'अमृत पत्रिका` नामक दैनिक के संपादकीय विभाग में कार्य करने लगे। अमरकांत यहाँ के भी प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े और ओमप्रकाश, मार्कण्डेय, कमलेश्वर व दुष्यंतकुमार जैसे लेखको के संपर्क में आये। पर यहाँ अमरकांत सुख से नहीं रह पाये। आर्थिक समस्या बड़ी थी। वे बहुत ही अल्प वेतन पर काम कर रहे थे। उनके प्रेस में आर्थिक लड़ाई शुरू हो गई थी। उन्हें कई तरह से अपमानित भी किया गया। अमरकांत का जीवन कष्ट में कट रहा था।
सन 1954 में वे गंभीर रूप से बिमार पड़े। वे हृदय रोग के शिकार हो गये थे। जीवन में निराशा का नया दौर शुरू हुआ। नौकरी छोड़कर वे लखनऊ चले गए। अमरकांत अपने जीवन को निरर्थक समझने लगे। कहीं से कोई भी उम्मीद नजर न आती। पर अंत में उन्होंने निश्चय किया कि वे अपना लेखन कार्य जारी रखेंगे। जितना हो सकेगा उतना वे लेखन करेंगे। लेखन ही उनके जीवन का आधार रहा। और उन्होंने किया भी यही।
6. संघर्ष
अमरकांत ने बी.ए. करने के बाद पत्रकार के रूप में अपनी नौकरी की शुरूआत की। किंतु इससे उनकी आर्थिक दशा में सुधार न हुआ। अमरकांत का समय साहित्यिक और मित्रों के बीच ही बितता था। वे एक लापरवाही भरी जिंदगी जी रहे थे। उन्हें किसी बात की कोई विशेष चिंता भी नहीं थी।
पर अमरकांत के चाचा को यह बात पसंद नहीं आयी। और वे अमरकांत के व्यवहार को लेकर के चिंतित रहने लगे। उन्होंने घर वालों को अपनी चिंता से अवगत भी कराया। और उन्होंने ही अमरकांत के पिताजी को सलाह दी की वे उसे आगरा से वापस बुला लें। अमरकांत के चाचा जी का नाम श्री साधुशरण वर्मा था। तीन वर्ष तक आगरा में रहने के बाद अमरकांत इलाहाबाद आ गये।
इलाहाबाद आने के बाद अमरकांत ने यहाँ से निकलने वाले 'अमृत पत्रिका` में नौकरी पायी। पर यहाँ पर भी तनख्वाह बड़ी मामूली थी। यहाँ आकर के अमरकांत ने गहरी आर्थिक तंगी को महसूस किया। प्रेस में भी उनके साथ अच्छा बर्ताव नहीं हुआ। प्रेस की अपनी आर्थिक समस्याएँ और झगड़े थें इसी बीच अमरकांत हृदय रोग के शिकार हुए और उन्हें लखनऊ जाना पड़ा।
लखनऊ रहते हुए अमरकांत गहरे मानसिक द्ंवद्व से ग्रस्त रहे। उन्हें जीवन से एक तरह से निराशा हो गयी। उन्हें अब यह लगने लगा कि अब वे किसी काम के नहीं रह गये। साथ ही साथ उन्हें इस बात का पछतावा भी हुआ कि उन्होंने जिंदगी का बहुत सारा समय यूँ ही बर्बाद कर दिया। अब वे अपना एक मिनट भी बर्बाद नहीं करना चाहते थे और लिखने के प्रण के साथ वे इस काम में जुट गये।
आय का कोई निश्चित साधन न होने के कारण उनकी माली हालत कोई बहुत अच्छी नहीं रही। स्वतंत्र लेखन के द्वारा ही वे जो अर्जित कर सके उसे ही आजीविका का साधन बनाया। अमरकांत ने अपना जीवन इसी तरह व्यतीत किया।
शेखर जोशी जी ने अमरकांत के इसी संघर्षमय जीवन का वर्णन करते हुए लिखा है कि, ''पिछले 18-20 वर्षो में जब-जब वे इलाहाबाद में रहे अमरकांत को अनेकों स्थितियों में देखा है - अपनी या परिवार के सदस्यों की बीमारी से जूझते हुए, बेरोजगारी के लम्बे और कमरतोड़ देने वाले दौर में, आर्थिक संकटों में आकण्ठ डूबे हुए, बच्चों की पढ़ाई, नौकरी और ब्याह-शादी की चिन्ताओं से ग्रस्त, समृद्ध भरे-पूरे परिवार के वरिष्ठतम सदस्य के रूप में अपेक्षित माँगों को पूरा न कर पाने की आत्मग्लानि से लाचार, नगण्य से पारिश्रमिक पर पाण्डुलिपि देने की विवशता में, रॉयल्टी के लिए झूठे या टालू वायदे झेलते हुए, अपर्याप्त वेतन पर खटते हुए, सहायता के नाम पर शोषण की चक्की में पिसते हुए। लेकिन ऐसे दौर से भी उनकी मन:स्थिति संक्रामक नहीं होती बल्कि उनकी जिजिविषा दूसरों के लिए भी प्रेरक शक्ति का काम करती है।``8
जोशी जी की उपर्युक्त बातों से अमरकांत के जीवन संघर्ष को आसानी से समझा जा सकता है। अमरकांत ने अपने भीतर एक तरह का आत्मअनुशासन विकसित कर लिया था। शायद यही वह प्रेरक शक्ति थी जिसका जिक्र शेखर जोशी जी करते हैं। अमरकांत का यही आत्मअनुशासन उनकी रचनाओं में भी दिखायी देता है। आर्थिक तंगी और बिमारी के बीच अमरकांत ने लेखन को अपने जीवन का आधार बनाया। जितना हो सके उतना लिखने का उन्होंने निश्चय कर लिया।
परिवार की जिम्मेदारियों के प्रति वे सचेत थे। अपनी क्षमताओं से बढ़कर उन्होंने करने का हमेशा की प्रयत्न किया। एक सामान्य मध्यम वर्ग का जीवन जीते हुए अमरकांत ने स्वतंत्र लेखक के रूप में अपना कार्य जारी रखा। 'सैनिक` और 'अमृत पत्रिका` के अतिरिक्त अमरकांत दैनिक भारत और कहानी मासिक से भी जुड़े थे। 'मनोरमा` पाक्षिक का संपादन कार्य भी अमरकांत ने किया। अमरकांत खुद भी एक पत्रिका निकालना चाहते थे पर सबसे बड़ी समस्या आर्थिक ही थी। पर साधनों की समस्या ने उनकी साधना में खलल नहीं पड़ने दिया। हाल ही में उन्होने 'बहाव` नामक पत्रिका का संपादन कार्य प्रारंभ किया। यह पत्रिका 'अमर कृतित्व` प्रकाशन द्वारा प्रकाशित होती है। अमरकांत के छोटे पुत्र 'अरविंद` इस प्रकाशन कार्य में मुख्य सहायक हैं। अरविंद जी खुद एक कहानीकार भी हैं।
अमरकांत का जीवन संघर्षों से भरा रहा। और यही संघर्ष उनके साहित्य को अधिक पैना करता रहा।
7. व्यक्तित्व की प्रमुख विशेषताएँ
किसी के भी व्यक्तित्व के निर्माण में परिवार, परिवेश और शिक्षा आदि का महत्वपूर्ण स्थान होता है। कथाकार अमरकांत का पारिवारिक वातावरण साहित्यिक नहीं था। फिर भी साहित्यिक दृष्टि से महत्वपूर्ण बहुत सारी बातें विरासत में अमरकांत को परिवार से ही मिली। 'जरि गइले एड़ी कपार` नामक लेख में शेखर जोशी ने इसी बात की चर्चा करते हुए लिखा है कि, ''किस्सागोई और व्यंग्य का ऐसा अनोखा वातावरण अमरकांत को अपने परिवार से विरासत में मिला है।``9 अमरकांत को अपनी कई कहानियों की प्रेरणा परिवार के सदस्यों के द्वारा ही प्राप्त हुई है।
अपनी इन्हीं कुछ कहानियों के बारे में अमरकांत स्वयं कहते हैं कि, ''..... रजुआ - वो करेक्टर है उसमें। बलिया में ही देखा था उसे हमने। हमारे वाले मुहल्ले का ही था वह। करीब दस एक दिन लगे होंगे - कम्पलीट हो गयी। इसके पूरा होते ही दूसरी लठा ली। एक दिन की भी देर नहीं की। ये भी हमारे परिवार की थी। भाई लॉ करके बलिया आ गये थे। बलिया जैसे छोटे शहर में रहकर उनका बिना सुविधा, अपने बूते आई.ए.एस. में बैठना। सिम्पिली सिटी के मास्टर थे वे। .......उत्साह, पिता की आशाएँ, प्रतीक्षा .......आप 'डिप्टी कलक्टरी` में देख सकते हैं....।``10
अमरकांत के व्यक्तित्व के निर्माण में उनके व्यक्तिगत संघर्ष की अहम भूमिका रही। उन्होंने कभी भी परिस्थितियों के आगे घुटने नहीं टेके। हर हाल में वे एक आम व्यक्ति की तरह संघर्ष करते रहे, शोषण का शिकार होते रहे और पारिवारिक दायित्वों के निर्वहन के लिए हर तरह के कष्ट को गले लगाते रहे। उनका यही भोगा हुआ यथार्थ उनके कथा साहित्य में अपनी पूरी समग्रता के साथ प्रस्तुत हुआ है।
अमरकांत के व्यक्तित्व की महत्वपूर्ण बात थी 'ईमानदारी`। अमरकांत ने हमेशा अपना काम पूरी ईमानदारी के साथ किया। वे कई पत्र-पत्रिकाओं के संपादन कार्य से जुड़े रहे। इसके बावजूद वे 'अवसरवादी` नहीं बने। शेखर जोशी जी इसी बात की चर्चा करते हुए लिखते हैं कि, ''आम तौर पर किसी पत्रिका के संपादन से जुड़ना नेतृत्व और आत्मप्रचार के लिए अच्छा अवसर प्रदान करता है। अनेकों महत्वाकांक्षी लोग इस अवसर का भरपूर लाभ उठाते देखे गए हैं। लेकिन अमरकांत में या तो वैसी प्रतिभा नहीं थी या यह उनके मिजाज में नहीं है।``11
अमरकांत अपने अंदर एक सीमा के निर्धारण के साथ जीते रहे। कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी उन्होंने स्वयं भी कभी उस सीमा का उल्लंघन नहीं किया। अमरकांत बाहर से जितने सुलझे व सहज लगते हैं वास्तव में अंदर से वे उतने ही उलझे और परेशान रहते। कारण यह था कि वे अपनी परेशानियों को अपने तक रखना पसंद करते थे और बाहर उसकी छाया भी नहीं पड़ने देना चाहते थे। पर यह प्राय: हो नहीं पाता। उनके मित्र उनकी परिस्थितियों से अच्छी तरह परिचित थे। लेकिन वे यह भी जानते थे कि यह आदमी मर्यादाओं में रहनेवाला है। अपने लाभ के लिए अमरकांत दूसरे का नुकसान नहीं कर सकते थे। ममता कालिया ने लिखा है कि, ''........ उनके दोस्तों ने तजुर्बे से पाया है कि किसी गलत बात में अमरकांत को भागीदार बनाना बेहद मुश्किल काम है, सौजन्यवश भी वे हामी नहीं भरते और सही बात पर अकेले अड़े रहने का माद्दा रखते हैं।``12
अमरकांत सदैव ही एक संकोची व्यक्ति रहे। आम जनता से जुड़ी हुई कोई भी बात उन्हें साधारण नहीं लगती थी। देश में होनेवाली हर महत्वपूर्ण घटना पर उनकी बारीक नज़र रहती थी। वे खुद यह कभी भी पसंद नहीं करते थे कि वे चर्चा के केन्द्र में रहें। इन सब बातों में उन्हें एक अलग तरह का संकोच होता था। सामान्य जनता, उससे जुड़ी हुई परेशानियाँ, जीवन और साहित्य इन सब में अमरकांत की गहरी संसक्ति थी। अमरकांत न केवल एक अच्छे साहित्यकार हैं बल्कि उतने ही अच्छे व्यक्ति भी हैं। उनका व्यक्तित्व बिना किसी बनावट के एकदम साफ और सहज है।
अमरकांत के व्यक्तित्व के बारे में राजेन्द्र यादव लिखते हैं कि, ''अमरकांत टुच्चे, दुष्ट और कमीने लोगों के मनोविज्ञान का मास्टर है। उनकी तर्क पद्धति, मानसिकता और व्यवहार को जितनी गहराई से अमरकांत जानता है, मेरे खयाल से हिन्दी का कोई दूसरा लेखक नहीं जानता.......।``13 अमरकांत के कथासाहित्य से कई प्रसंगों को उठाकर के राजेन्द्र यादव ने अपनी इस बात की पुष्टि भी की है। अमरकांत जब किसी व्यक्ति की आँखों में आँखे डालकर देखते थे तो उसके अंदर बाहर का सारा नाटक समझ जाते थे। इसपर भी वे चुप रहना ही ज्यादा पसंद करते थे। शायद यही उनकी वह शक्ति तथा मारक क्षमता थी जिसको राजेन्द्र यादव स्पष्ट करते हैं।
अमरकांत अपने समय और उसमें घटित होने वाले हर महत्वपूर्ण परिवर्तन से जुड़े रहे। उन्होंने जो देखा, समझा और जो सोचा उसी को अपनी कहानियों के माध्यम से प्रस्तुत किया। उनकी कहानियाँ एक तरह से 'दायित्वबोध` की कहानियाँ कही जा सकती हैं। यह 'दायित्वबोध` ही उन्हें प्रेमचंद की परंपरा से भी जोड़ता है। अमरकांत ने अपने जीवन और वातावरण को जोड़कर ही अपने कथाकार व्यक्तित्व की रचना की है। अमरकांत अपने समकालीन कहानीकारों से अलग होते हुए भी प्रतिभा के मामले में कहीं भी कम नहीं है। उनका व्यक्तित्व किसी भी प्रकार की नकल से नहीं उपजा है। उन्होंने जिन परिस्थितियों में अपना जीवन जिया उसी से उनका व्यक्तित्व बनता चला गया। और उन्होंने जीवन में जो भी किया उसी को पूरी ईमानदारी से अपने लेखन के माध्यम से प्रस्तुत करने का प्रयत्न भी किया। इसलिए अमरकांत के व्यक्तित्व को निर्मित करने वाले घटक तत्वों पर विचार करने से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि उनका व्यक्तित्व आरंभ से लेकर अब तक एक उर्धगामी प्रक्रिया का परिणाम है। उन्होंने अपने व्यक्तित्व को किसी निश्चित योजना अथवा आग्रह के आधार पर विकसित न करके जीवन के व्यावहारिक अनुभव द्वारा आकारित किया। सारांशत: उनका व्यक्तित्व अनुभव सिद्ध व्यक्ति का व्यावहारिक संगठन है। यही कारण है कि उनमें आत्मनिर्णय, आत्मविश्वास और आत्मभिमान का चरम उत्कर्ष दिखायी पड़ता है।
8. पुरस्कार एवम् सम्मान
अमरकांत को जो प्रमुख पुरस्कार एवम् सम्मान मिले, वे इसप्रकार हैं।
1. सोवियतलैंड नेहरू पुरस्कार
2. उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान पुरस्कार
3. मैथिलीशरण गुप्त पुरस्कार
4. यशपाल पुरस्कार
5. जन-संस्कृति सम्मान
6. मध्यप्रदेश का 'अमरकांत कीर्ति` सम्मान
7. इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग का सम्मान
इन सभी पुरस्कारों में अमरकांत सोवियतलैंड नेहरू पुरस्कार से जुड़ी बातों को याद करते हुए बताते हैं कि यह पुरस्कार उन्हें सन् 19.......... में मिला। संयोग की बात है कि जिस दिन इंदिरा गांधी की हत्या हुई उसी दिन शाम को तार के माध्यम से इस पुरस्कार की सूचना अमरकांत को प्राप्त हुई। इस पुरस्कार में 15 दिन की सोवियत यात्रा भी शामिल थी।
अगले वर्ष सन 19....... की जुलाई में अमरकांत 15 दिन की सोवियत यात्रा पर भी गये। वहाँ पर उन्होंने मास्को सहित कई अन्य प्रमुख शहरों की यात्रा की। लेकिन वहाँ से लौटने के बाद अमरकांत गंभीर रूप से बिमार पड़ गये। विदेश यात्राओं के कई अन्य अवसर उनके पास आये मगर स्वास्थ के कारणों से वे कहीं जा ना सके।
इन पुरस्कारों के अतिरिक्त अमरकांत की कई कहानियों का विदेशी एवम् प्रादेशिक भाषाओं में अनुवाद भी हुआ है। 'पेंग्विन इंडिया` के माध्यम से अंग्रेजी में प्रकाशित दो कहानी संग्रहों में अमरकांत की कहानियाँ शामिल की गई हैं। इनकी कुछ कहानियों का प्रदर्शन दूरदर्शन के द्वारा भी किया जा चुका है। राष्ट्रीय नाट्या विद्यालय, दिल्ली और गढ़वाल, कुमाँयू, गोरखपूर, इलाहाबाद और आगरा के कई संस्थाओं द्वारा अमरकांत की कहानियों का सफल मंचन किया गया है।
देशभर के कई विश्वविद्यालयों के पाठ्याक्रम में अमरकांत का साहित्य शामिल किया गया है। देशभर से निकलने वाले हिंदी की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में अमरकांत का साहित्य छपता रहा है। हिंदी साहित्य के क्षेत्र में अमरकांत ने वह उँचाई बना ली जहाँ पुरस्कार एवम् सम्मान अमरकांत की प्रतिष्ठा नहीं बढ़ाते, अपितु अमरकांत से जुड़कर स्वयं सम्मानित हुए हैं।
ख) अमरकांत : विचारधारा एवम् साहित्यिक दृष्टि
1. कविता प्रेम
अमरकांत जब बलिया के गवर्नमेंट हाई स्कूल में नवीं कक्षा में पढ़ते थे, उसी समय श्री गणेश प्रसाद जी हिंदी शिक्षक के रूप में उस विद्यालय में नियुक्त हुए। गणेश प्रसाद एम.ए. पास नवयुवक थे। गणेश प्रसाद जी हमेशा अपने विद्यार्थियों को साहित्यिक गतिविधियों में रूचि लेने के लिए प्रेरित करते रहते थे। अमरकांत गणेश प्रसाद जी से बहुत प्रभावित थे। उन्हीं से प्रेरणा पाकर अमरकांत व मित्रों ने कहानियाँ लिखनी शुरू की, हस्तलिखित पत्रिकाएँ निकाली और अन्ताक्षरी टीम में शामिल हुए।
विद्यार्थी कविताओं को याद करें इसलिए गणेश प्रसाद जी खुद भी मेहनत करते थे। उनके बारे में अमरकांत लिखते हैं कि, ''गणेश प्रसाद जी सादे कागज की पतली-पतली स्लिपों पर परिश्रमपूर्वक सुंदर अक्षरों में बहुत-सी कविताएँ लिखकर ले आए थे, जिनमें मुख्य रूप से घनानन्द, पद्माकर, रत्नाकर, देव, रसखान, मतिराम, हरिश्चन्द्र, तुलसीदास, सूरदास आदि की रचनाएँ थीं। भक्ति, शृंगार, वीर आदि सभी रसों की उन कविताओं की मधुरता एवं शब्द, ध्वनि और अर्थ की व्यंजनाएँ श्रोताओं को मुग्ध और आनन्दित करने में समर्थ थीं।``14
अमरकांत ने इन्हीं दिनों से कविताएँ याद करनी शुरू की। उन दिनों आजादी का नशा पूरे भारत पर छाया हुआ था। हर भारतवासी गुलामी की जंजीरों को तोड़कर आजाद भारत में साँस लेना चाहता था। अमरकांत भी ऐसे ही आजादी के मतवाले थे। देश प्रेम से भरी कविताएँ गाने से उन्हें एक तरह की आंतरकि शक्ति मिलती थी। वे स्वयं लिखते हैं कि, ''उन दिनों जब आजादी की लड़ाई हो रही थी और बाद में भी संकट, दु:ख और निराशा के समय मैंने इस गीत को एकान्त में गा-गाकर साहस, शक्ति और सम्बल प्राप्त किया है। याद की गई अन्य कविताओं के बारे में भी मेरी यही स्थिति रहती है। भाव-विव्हल हृदय की भाषा है कविता, अत: हृदय से हृदय की बात होना आसान है। लेकिन आश्चर्य की बात तो यह है कि हृदय की गहराइयों से निकली शृंगार रस की कविताएँ भी हिम्मत देती हैं और आपको मानवीय सच्चाइयों के पक्ष में खड़ा होने की ताकत भी।``15
जैसा की हम पहले उल्लेख कर चुके हैं। बी.ए. पास करने के बाद अमरकांत ने नौकरी करने का निश्चय किया। नौकरी का यह क्रम सन् 1948 से आगरा से शुरू हुआ। उन्होंने आगरा से निकलने वाले 'सैनिक` दैनिक पत्र के संपादकीय विभाग में नौकरी शुरू की। यहीं पर उनकी मुलाकात विश्वनाथ भटेले जी से हुई। भटेले जी ही उन्हें प्रगतिशील लेखक संघ की मीटिंग में ले गये। यहीं पर अमरकांत की मुलाकात डॉ. रामविलास शर्मा जी जैसे वरिष्ठ साहित्यकारों से हुई।
प्रगतिशील लेखक संघ की मीटिंग में अमरकांत का परिचय अच्छे गज़ल गायक के रूप में कराया गया। अमरकांत इससे खुश नहीं थे। वास्तव में उन्हें गज़ल व कविताएँ पसंद थी, वे उसे अकेले में या दोस्तों के आग्रह पर सुना भी देते थे पर उन्होंने स्वयं कोई कविता या गज़ल लिखकर कभी कोई प्रतिष्ठा पाने की कोशिश नहीं की थी। उर्दू के कुछ मित्रों का संग-साथ, अंताक्षरी टीम का सदस्य व कविताओं गज़लों में रूचि के कारण उन्हें बहुत सारी पंक्तियाँ याद जरूर हो गयीं थी पर इन सब के कारण वे अपने आप को कवि मानने के लिए तैयार नहीं थे।
पर डॉ. रामविलास शर्मा जी जैसे वरिष्ठ साहित्यकार का आग्रह वे ठुकरा नहीं सकते थे। पर अब ये हर बार का किस्सा हो गया था। इससे छुटकारा पाने के लिए अमरकांत ने कहानी लिखने का निश्चय किया। अगली मीटिंग में इसके पहले कि कोई गज़ल या कविता सुनाने के लिए कहे, उन्होंने खुद यह घोषणा कर दी कि वे कहानी सुनायेंगे।
इस तरह उन्होंने 'इंटरव्यू` नामक अपनी पहली कहानी लिखी और आगरा के प्रगतिशील लेखक संघ की मीटिंग में उसे डॉ. रामविलास शर्मा एवम् अन्य सदस्यों को सुनाया। सभी लोगों ने यह कहानी सुनकर उसकी भरपूर प्रशंसा की। इस कहानी ने अमरकांत को एक नई पहचान दी। अब वे कहानीकार के रूप में पहचाने जाने लगे। अब उनसे कोई कविता या गज़ल सुनाने का आग्रह नहीं करता था। अमरकांत अपनी नई पहचान से खुश थे।
कविताएँ व गज़ल उन्हें अभी भी पसंद हैं। वे कई कंठस्थ कविताएँ गुनगुनाना भी पसंद करते हैं। पर वे स्वयं कविता नहीं लिखते। इसलिए खुद को कवि कहलवाना भी पसंद नहीं करते।
2. साहित्यिक वातावरण :
यह संकेत दिया जा चुका है कि अमरकांत के घर में कोई साहित्यिक वातावरण नहीं था। स्कूल के अध्यापक श्री गणेश प्रसाद जी ने जरूर लिखने के लिए अमरकांत को प्रेरित किया। बी.ए. अमरकांत ने इलाहाबाद के हिन्दू बोर्डिंग हाऊस में रहकर पूरा किया। उन दिनों डॉ. रघुवंश भी वही छात्रावास में रहकर शोध कर रहे थे। पर इस समय तक अमरकांत हिन्दी साहित्य जगत से परिचित नहीं थे। अमरकांत का विषय भी हिन्दी नहीं था।
स्कूल के दिनों के ही कई मित्र अमरकांत को फिर हिन्दू बोर्डिंग हाऊस में मिले। इन्हीं मित्रों के साथ मिलकर अमरकांत ने फिर एक हस्तलिखित पत्रिका निकाली। इस तरह की एक-दो और पत्रिकाएँ अमरकांत व मित्रगण अपने प्रिय अध्यापक श्री गणेश प्रसाद जी की प्रेरणा से पहले भी निकाल चुके थे।
औपचारिक रूप से हिंदी भाषा अथवा साहित्य अध्ययन का विषय न होने पर भी साहित्य में अमरकांत की गहरी रूचि थी। माध्यमिक कक्षा में उनके प्रेरणा पुरूष गणेश प्रसाद ने साहित्य निष्ठा का जो बीजारोपण किया था वह सदैव ही सचेतन व सक्रिय बना रहा। इसलिए इलाहाबाद के हिंदू हॉस्टल में जब पुराने मित्रों का साहचर्य मिला तो उन्होंने पत्रिकाएँ निकालकर अपनी साहित्यिक अभिरूचि का परिचय दिया।
आगरा के प्रगतिशील लेखक संघ में कविताओं, गीतों व गज़लों का आकर्षक पाठ भी उनके साहित्यिक संस्कार का ही अंग था। यह बीजांकुर उनके साहित्यिक होता गया और 'इंटरव्यु` नामक कहानी के रूप में उसका सुफल सामने आया। ध्यातव्य है कि उनकी पहली ही कहानी 'इंटरव्यु` डॉ. रामविलास शर्मा जैसे दिग्गज समीक्षकों द्वारा प्रशंसित हुई। यहीं से अमरकांत के सशक्त रचनाकार का स्वरूप स्पष्ट होता है।
तीन साल आगरा रहने के बाद अमरकांत वापस इलाहाबाद आ गये। यहाँ पर अमरकांत की पहचान भैरव प्रसाद गुप्त जी जैसे साहित्यकारों से हुई। यहाँ 'परिमल` और 'प्रगतिशीलों` की आपसी नोक-झोक से अमरकांत अवगत हुए। मार्कण्डेय व शेखर जोशी जैसे मित्र अमरकांत को यहीं पर मिले। इलाहाबाद के साहित्यिक परिवेश से अमरकांत अच्छी तरह जुड़ गये थे। शमशेर, अमृतराय, श्रीकृष्णदास, नेमिचन्द्र जैन, पहाड़ी और डॉ. एजाज हुसेन जैसे अनेक उर्दू व हिन्दी के लेखकों से परिचित होने का अवसर मिला। इलाहाबाद के बारे में स्वयं अमरकांत लिखते हैं कि, ''धर्म, राजनीति, शिक्षा एवं साहित्य का प्रमुख केन्द्र था इलाहाबाद। यहाँ का विश्वविद्यालय देशभर में मशहूर। प्रदेश के सर्वोत्तम लड़के शिक्षा के लिए इलाहाबाद आते थे। लगता था कि हिन्दी के तमाम प्रख्यात लेखक इलाहाबाद में ही रहते हैं। निराला, सुमित्रा नन्दन पंत, महादेवी वर्मा, शमशेर बहादुर सिंह, प्रकाश चन्द्र गुप्त, श्रीपत राय, अमृतराय, भैरव प्रसाद गुप्त, श्री कृष्णदास, नेमीचन्द्र जैन, डॉ. भगवतशरन उपाध्याय, गंगा प्रसाद पांडेय, नरेश मेहता, पहाड़ी, धर्मवीर भारती, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, लक्ष्मी कान्त वर्मा, लक्ष्मी नारायण लाल तथा अनेक अन्य उभरते युवा लेखक। तब भुवनेश्वर भी विक्षिप्तावस्था में यहीं रहते थे।.......``16
हृदय रोग के कारण अमरकांत को इलाहाबाद छोड़ना पड़ा। वे लखनऊ चले आये। यहाँ पर आकर के वे गहरे मानसिक द्ंवद्व से लड़ते रहे। वे अपने जीवन से निराश हो गये थे। वहाँ से फिर वे अपने घर आ गये और बेकार बैठे रहे। 'दोपहर का भोजन` कहानी लिखकर अमरकांत ने अपनी शक्ति को संचित किया।
इन दिनों की याद में अमरकांत ने 'प्रेमकुमार` जी को दिये एक साक्षात्कार में कहा, ''...... 1954 में मैं बीमार पड़ गया। बी.पी. की शिकायत हुई, फिर हार्ट ट्रबल। शाम की ड्याूटी में अचानक पेन! सॉस लेने में तकलीफ! मित्र ने घर पहुँचाया। उस समय इन बीमारियों के बारे में इतनी जागरूकता नहीं थी। चेक अप नहीं थे, हकीम थे। नौकरी डिसकंटीन्यू हुई। चीजें कुछ इस तरह बिगड़ती गयी कि ट्रीटमेंट भी गड़बड़ाता रहा। लखनऊ चला गया। मेडिकल कॉलेज में वहाँ जब ठीक से डायग्नोस हुआ, तब ठीक हुआ। अर्ली एज मेंं हुआ यह सब कोई खास एज नहीं थी - उनतीस वर्ष की उम्र रही होगी। नौकरी छूट ही गयी थी तो फिर बलिया में रहा।``17
इस तरह अमरकांत फिर अपने आपको लेखन कार्य की तरफ मोड़ पाये। आर्थिक तंगी को दूर करने के लिए भी उन्होंने लेखन का ही सहारा लिया। अब तक अमरकांत साहित्य जगत में अच्छी तरह पहचाने जाने लगे थे। स्वास्थ के कारणों से अब दौड़-भाग उनसे संभव नहीं थी। पर वे अपने लेखन के माध्यम से साहित्य जगत से जुड़े रहे।
3. साहित्यिक प्रेरणा स्रोत
यह बताया जा चुका है कि अमरकांत को बचपन में शरच्चन्द्र की रचनाओं ने बेहद प्रभावित किया। अपने पिताजी से उन्होंने बहुत सी बातें सीखी थी। पर घर पे कोई साहित्यिक वातावरण नहीं था। घर पर आनेवाले 'चलता पुस्तकालय` की किताबोें को ही पढ़कर अमरकांत के मन में साहित्य के बीज अंकुरित हुए। अमरकांत ने अपने लिखने की प्रेरणा के बारे में स्वयं लिखते हैं कि, ''एक शाम की याद उसे आती है। मौसम में कुछ हल्की फुल्की सिहरन थी। उसने शरच्चन्द्र की कोई सशक्त कहानी पढ़ कर अभी-अभी समाप्त की थी। अंधेरा घिरने लगा था। पुस्तक समाप्त करते ही उसने अपने अंदर एक अद्भुत परिवर्तन का अनुभव किया, जैसे बिजली दौड़ गई हो। वह बरामदे से बाहर निकल आया। मकान और सामने की सड़क के बीच मजे की खुली जगह थी। वह वहाँ टहलने लगा। सहसा उसके अंदर से कोई आवाज उठी; ''मैं लिख सकता हूँ..... ठीक वैसा ही, उसी तरह....।`` यह सोचकर उसे रोमांच हो आया। एक असम्भव कल्पना थी। सब कुछ अविश्वसनीय। सामने धुँआए से आसमान में निर्मल चाँद निकल आया था। सिर के ऊपर पीपल के पत्ते हल्की हवा में चंचल हो रहे थे। जिसका वर्णन नहीं हो सकता, वैसे ही कोमलता, करूणा एवं खुशी उसके अंदर लबालब भरी हुई थी। उसकी आँखों में आँसू उमड़ने लगे....।``18
स्कूल में सहपाठी चन्द्रिका व अध्यापक बाबू गणेश प्रसाद के व्यक्तित्व ने भी अमरकांत को प्रभावित किया। बाबू गणेश प्रसाद की प्रेरणा से अमरकांत ने अन्य मित्रों की मदद से 'हस्तलिखित पत्रिका` निकाली। उन दिनों पूरा देश आजादी के लिए तड़प रहा था। छोटे-छोटे बच्चे भी नेहरू व महात्मा गांधी के नाम से परिचित थे। अमरकांत भी इन नामों से परिचित हो चुके थे। क्रांतिकारियों के बारे में भी उन्होंने सुन रखा था। देश-प्रेम से भरे हुए बहुत से गीत उन्हें कंठस्थ थे। स्थानीय क्रांतिकारियों से मेल-जोल बढ़ने पर उन्हें क्रांति से संबंधित बहुत सी पुस्तकें पढ़ने को मिली। अपने मित्रों के साथ मिलकर अमरकांत ने कुछ हास्यास्पद क्रांतिकारी कार्य भी किया।
धीरे-धीरे अमरकांत 'कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी` की क्लासेस में आने-जाने लगे। यहीं पर अमरकांत ने आचार्य नरेन्द्र देव व राहुल जी के साहित्य से परिचित हुए। महात्मा गांधी व पंडित जवाहर लाल नेहरू की आत्मकथाओं को पढ़ा। हाईस्कूल पास करने तक अमरकांत कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के मेम्बर बन गए थे। खद्दर पहनने लगे थे। साथ ही साथ यह समझ गये थे कि सबसे जरूरी है भारत माता की आजादी। और यह आजादी आतंकवाद के रास्ते पर चलने से नहीं मिलेगी अपितु जनता के बीच जाकर उन्हें जागृत करना पड़ेगा। अमरकांत एक लंबे समय तक यह नहीं तँय कर पाये कि उन्हें जीवन में करना क्या है? वे इसी मानसिक द्ंवद्व से जूझते रहे।
बी.ए. करने के बाद जब वे आगरा आये तो यहाँ के 'प्रगतिशील लेखक संघ` से जुड़े। यहीं पर अमरकांत को एक साहित्यिक पहचान मिली। डॉ. राम विलास शर्मा, राजेन्द्र यादव, राजेन्द्र रघुवंशी, घनश्याम अस्थाना, पद्मसिंह शर्मा कमलेश, रावी व रांगेय राघव जैसे साहित्यकारों से उनकी पहचान हुई। इनमें डॉ. रामविलास शर्मा के व्यक्तित्व ने उन्हें प्रभावित किया। स्वयं अमरकांत ने लिखा है कि, ''....अगर मैं प्रगतिशील लेखक संघ की मीटिंग में नहीं गया होता और डॉ. रामविलास शर्मा की प्रेरणा मुझे नहीं मिली होती तो मैंं कब तक भटकता रहता।``19
आगरा में तीन वर्ष बिताने के बाद अमरकांत इलाहाबाद आ गये। यहाँ के भी 'प्रगतिशील लेखक संघ` से वे जुड़े। यहाँ के साहित्यिक वातावरण में भैरव प्रसाद गुप्त व शमशेर बहादुर सिंह उन्हें सर्वाधिक प्रभावित किया। मार्कण्डेय व शेखर जोशी अमरकांत के प्रिय मित्रों में थे। इलाहाबाद में शुरू-शुरू में अमरकांत सभी के लिए अपरिचित ही थे। श्री प्रकाश चन्द गुप्त एक मात्र व्यक्ति थे जो अमरकांत को पहले से जानते थे।
इलाहाबाद में ही रहते हुए अमरकांत हृदय रोग के शिकार हो गये। इसके बाद लखनऊ, आजमगढ़ व बलिया रहे। जीवन के निराशा व अवसाद भरे क्षणों में भी अमरकांत ने 'लिखते रहने` का संकल्प नहीं छोड़ा। और उनका यह संकल्प अभी भी जारी है। ढलती उम्र व बिमारी उन्हें विचलित नहीं कर पायी।
4. प्रभावित करनेवाली विचार धाराएँ
अमरकांत के बचपन का समय वह समय था जब सारा देश आज़ादी के लिए तड़प रहा था। क्रांतिकारियों के किस्से हर गली हर मुहल्ले में गीतों के रूप में गाये जाते थे। अध्ययन के लिए सामग्री चोरी-छुपे उपलब्ध होती थी। मन्मथनाथ गुप्त की पुस्तक 'भारत में सशस्त्र क्रांति की चेष्टा`, 'चाँद` का 'फाँसी अंक` और ऐसी कई पुस्तकों ने अमरकांत की जीवन दिशा बदली।
श्री नर्मदेश्वर चतुर्वेदी जो कि कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की क्लासेस चलाते थे। उनके विचारों ने अमरकांत को खूब प्रभावित किया। गांधी जी की सच्चाई अमरकांत को सबसे अधिक प्रभावित करती थी। अमरकांत समाजवादी विचारों से जुड़े थे अत: उन्हें यह बात बहुत खुशी देती थी कि नेहरू जी भी समाजवादी हैं। जयप्रकाश नारायण से भी अमरकांत प्रभावित थे। डॉ. लोहिया के विचारों को भी वे पसंद करते थे। मार्क्सवाद, समाजवाद, गांधीवाद और ऐसे ही कई अन्य विचारों को साथ लेकर अमरकांत आगे बढ़ रहे थे। कारण यह था कि उन दिनों जो सबसे बड़ा प्रश्न था वह देश की स्वतंत्रता का था। और सभी तरह के विचार इस महान उद्देश्य से जुड़ ही जाते थे।
अमरकांत को शरतचन्द्र के लेखन ने भी प्रभावित किया। इसके कारण को स्पष्ट करते हुए अमरकांत स्वयं लिखते हैं कि, ''एक मध्यमवर्गीय परिवार में जिस लाड़-प्यार से वह पला था, जैसे बँधे, पिछड़े और ग्रामीण समाज में वह रहता था, जैसी कच्ची उम्र और उसका देश जिस कष्ट, पीड़ा, अन्याय और गुलामी के दौर से गुजर रहा था और जैसा वह स्वयं अव्यावहारिक एवं कल्पनाशील था - ऐसी स्थितियों में 'रोमान्टिसिज्म` एक अनिवार्य परिणाम था। .......... शरतचन्द्र का रोमांटिसिज्म व्यक्तिवाद, कोरी काल्पनिकता, कलाबाजी और छद्म आधुनिकता पर आधारित नहीं है। उनकी रचनाएँ अपने समय के प्रगतिशील यथार्थ की गहरी समझ के बल पर खड़ी होती है और परिवर्तन की कामना को तीव्रता से व्यक्त करती है।``20
अमरकांत अपने ऊपर प्रेमचन्द और अन्य साहित्यकारों का भी प्रभाव स्वीकार करते हैं। उन दिनों अमरकांत के पास सभी साहित्य उपलब्ध नहीं होता था। जो पढ़ने को मिलता उन्हीं का प्रभाव भी पड़ना स्वाभाविक था। उन दिनों शरतचन्द्र और रवीन्द्रनाथ टैगोर का साहित्य उनके लिए उपलब्ध था। घर पर आने वाले 'चलता पुस्तकालय` के माध्यम से ही अधिकांश साहित्य उन्हें पढ़ने को मिला था। इन दोनों की ही कहानियों में रोमांटिक तत्व था जिसने अमरकांत को प्रभावित किया।
आगे चलकर जब अमरकांत का परिचय प्रेमचंद, अज्ञेय, जैनेन्द्र, इलाचंद जोशी और विश्वसाहित्य से हुआ तो उनके अंदर एक दूसरे तरह की समझ विकसित हुई। रोमांस और आदर्श का प्रभाव उनके ऊपर से कम होने लगा। वैसे इस रोमांस और आदर्श से दूर होने का एक कारण अमरकांत विभाजन के दम पर मिली आज़ादी और उसके बाद हुए भीषण कत्ले आम को भी मानते हैं। अभी तक सभी का उद्देश्य एक ही था और वह था देश की आज़ादी। लेकिन पद, पैसा और प्रतिष्ठा के लालच में लोग अब विभाजन की बात करने लगे थे। इससे आदर्शो के प्रति जो एक भावात्मक जुड़ाव था उसे गहरा धक्का लगा।
जयप्रकाश नारायण के कांग्रेस पार्टी से अलग होने की बात सुनकर भी अमरकांत को आघात पहुँचा। गोर्की, मोपासा, टॉलस्टॉय, चेखव, डास्टायवस्की, रोमा रोला, तुर्गनेव, हार्डी, डिकेन्स जैसे लेखकों के साहित्य नें अमरकांत को प्रभावित किया। बी.ए. करने के बाद अमरकांत नौकरी करने आगरा चले आये। यहाँ वे प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े और कई साहित्यकारों से परिचित भी हुए।
आगरा के बाद अमरकांत इलाहाबाद चले आये। यहाँ के भी प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े। इलाहाबाद आने और यहाँ के प्रगतिशील लेखक संघ से जुडने से अमरकांत के साहित्यिक संस्कार अधिक पुष्ट हुए। लेखकीय आत्मविश्वास में भी वृद्धि हुई। प्रगतिशील लेखक संघ के लेखकों के साथ विार विनिमय का भी उनकी रचनाशीलता पर प्रभाव पड़ा। उनकी ग्रहणशीलता का यह वैशिष्ट्या था कि लेखकों के रचनात्मक गुणों को वे आदरपूर्वक स्वीकार करते थे। यह भी लक्षणीय है कि जहाँ उन्होंने अपने समान धर्माओं से प्रभाव ग्रहण किया वहीं उन्हें प्रभावित भी किया। मोहन राकेश, रांगेय राघव, राजेन्द्र यादव, नामवर सिंह, कमलेश्वर, केदार, राजनाथ पाण्डेय, मधुरेश, मन्नू भंडारी, मार्कण्डेय, शेखर जोशी, भैरव प्रसाद गुप्त, भीष्म साहनी, निर्मल वर्मा, श्रीकांत वर्मा, ज्ञान प्रकाश, सुरेन्द्र वर्मा, विजय चौहान और विश्वनाथ भटेले जैसे कई साहित्यकारों ने अगर अपना प्रभाव अमरकांत पर डाला तो वे भी अमरकांत के साहित्यिक प्रभाव से बच नहीं पाये। समय-समय पर इन सभी ने अमरकांत के साहित्य पर अपनी समीक्षात्मक दृष्टि प्रस्तुत की है।
सन् 1954 में बीमार पड़ने के बाद अमरकांत को कठोर प्रतिबंधों के दौर से गुजरना पड़ा। अब उनका घूमना फिरना कम हो गया किंतु आर्थिक दबाव और परिवार की जिम्मेदारियों से जूझते हुए भी उन्होंने लिखने का क्रम नहीं छोड़ा। उम्र के इस पड़ाव पर भी उनका लेखन कार्य सतत जारी है। नए लोगों को वे पढ़ रहे हैं। खुद अमरकांत के शब्दों में, ''.....पत्र-पत्रिकाओं के विषय में मैं इतना जरूर कहना चाहूंगा कि यदि उन्हें संगठित ढंग से निकाला जाएगा तो लोग पढ़ेंगे। उन्हें पाठकों तक पहुंचाने की जिम्मेदारी भी निकालने वालों की है। इधर बीमारी के कारण मैं बहुत नए लेखकों और लेखिकाओं को पढ़ नहीं पाया हूँ, फिर भी, उदय प्रकाश, अखिलेश, मैत्रेयी, ममता कालिया, चित्रा मुद्गल ने अच्छी कहानियाँ और उपन्यास लिखे हैं।``21
अमरकांत अपने समय के सामाजिक, राजनीतिक एवम् साहित्यिक परिवेश से हमेशा जुड़े रहे और इन सबका मिला जुला प्रभाव उनके व्यक्तित्व एवम् साहित्य पर पड़ा।
5. कथा लेखन
अमरकांत के संपूर्ण कथा साहित्य को निम्नलिखित रूपों में बाटा जा सकता है।
1. अमरकांत के कहानी संग्रह
1. जिंदगी और जोक
2. देश के लोग
3. मौत का नगर
4. मित्र मिलन
5. कुहासा
6. तूफान
7. कला प्रेमी
8. प्रतिनिधि कहानियाँ
इधर अमरकांत की संपूर्ण कहानियाँ दो भागों में प्रकाशित हो चुकी हैं। 'जाँच और बच्चे` कहानी संग्रह में उनकी नवीनत रचनाये हैं।
1. अमरकांत की सम्पूर्ण कहानियाँ
खण्ड एक - अमर कृतित्व प्रकाशन (प्रथम संस्करण 2002)
2. अमरकांत की सम्पूर्ण कहानियाँ
खण्ड दो - अमर कृतित्व प्रकाशन (प्रथम संस्करण 2002)
3. जाँच और बच्चे
- अमर कृतित्व प्रकाशन (प्रथम संस्करण 2005)
इस तरह अमरकांत की संपूर्ण कहानियाँ उपर्युक्त तीन संग्रहों के माध्यम से उपलब्ध हैं। खण्ड एक और दो की कहानियों को उनके रचना कालक्रम के 5 दशकों में विभाजित किया गया है। '1950 का दशक` से लेकर '1990 का दशक` तक। इस तरह इन दोनों खण्डों में अमरकांत की कुल 82 कहानियाँ संग्रहित हैं। नवीनतम कहानी संग्रह 'जाँच और बच्चे` में 11 कहानियाँ संग्रहित हैं। इस तरह अमरकांत की कुल 93 कहानियाँ इन तीनों कहानी संग्रहों के माध्यम से उपलब्ध हैं। अब तक अमरकांत द्वारा लिखित इतनी ही कहानियों का प्रकाशन हुआ है।
2. अमरकांत के उपन्यास
अमरकांत के प्रकाशित अब तक के कुल उपन्यास निम्नलिखित हैं।
1. सूखा पत्ता - राजकमल प्रकाशन (प्रथम संस्करण 1984)
2. आकाश पक्षी - राजकमल प्रकाशन (प्रथम संस्करण 2003)
3. काले उजले दिन - राजकमल प्रकाशन (प्रथम संस्करण 2003)
4. कँटीली राह के फूल - राजकमल प्रकाशन (प्रथम संस्करण 1963)
5. ग्राम सेविका - लोकभारती (प्रथम संस्करण 1973)
6. सुखजीवी - संभावना प्रकाशन, हापुड़ (प्रथम संस्करण 1982)
7. बीच की दीवार - अभिव्यक्ति प्रकाशन (1969 में
'दिवार` और 'आंगन` नाम से प्रकाशित)
8. सुन्नर पांडे की पतोह - राजकमल प्रकाशन (प्रथम संस्करण 2005)
9. सुरंग - अक्टूबर 2005, कादम्बिनी उपहार अंक
10. इन्ही हथियारों से। - राजकमल प्रकाशन (प्रथम संस्करण 2003)
इनके अतिरिक्त भी अमरकांत द्वारा समय-समय पर कुछ अन्य साहित्य भी लिखा जाता रहा। इन सभी को हम 'प्रकीर्ण साहित्य` के अंतर्गत विचार करेंगे। ये रचनाएँ निम्नलिखिति हैं।
3. अमरकांत का प्रकीर्ण साहित्य
1. कुछ यादें कुछ बातें - संस्मरण
2. नेउर भाई - बाल साहित्य, प्रकाशक कृतिकार, इलाहाबाद
3. बानर सेना - बाल साहित्य, प्रकाशक कृतिकार, इलाहाबाद
4. खूँटा में दाल है - बाल साहित्य, प्रकाशक कृतिकार, इलाहाबाद
5. सुग्गी चाची का गाँव - बाल साहित्य, प्रकाशक कृतिकार, इलाहाबाद
6. झगरूलाल का फैसला - बाल साहित्य, प्रकाशक कृतिकार, इलाहाबाद
7. एक स्त्री का सफर - बाल साहित्य, प्रकाशक कृतिकार, इलाहाबाद
इस तरह हम देखते हैं कि अमरकांत ने लगातार अपना लेखन कार्य जारी रखा। सारी कहानियाँ दो खण्डों में आ जाने से उनका अध्ययन सुविधा जनक हो गया है। अमरकांत के अधिकांश उपन्यास 'राजकमल प्रकाशन` द्वारा प्रकाशित किये गये हैं। इसमें से कुछ उपन्यास अब 'आउट ऑफ प्रिंट` भी हैं। जैसे कि 'ग्राम सेविका` व 'कँटीली राह के फूल`। ये प्राय: दुर्लभ हैं। इनकी संभावना कुछ प्रतिष्ठित ग्रंथालयों में ही की जा सकती है।
बाल साहित्य भी अमरकांत ने पर्याप्त लिखा है। ये पुस्तकें इलाहाबाद के ही प्रकाशकों द्वारा प्रकाशित की गयी हैं। जैसे कि 'कृतिकार`। अमरकांत द्वारा लिखित अधिकतर बाल साहित्य 'कृतिकार` द्वारा ही प्रकाशित हैं। लेकिन इन पुस्तकों का कोई नियमित संस्करण नहीं निकला, अत: इन सभी को 'आउट ऑफ प्रिंट` की श्रेणी में रखा जा सकता है।
'अमर कृतित्व` प्रकाशन के पास इन पुस्तकों की कुछ प्रतियाँ सुरक्षित रखी गयी हैं। शोध कार्य की दृष्टि से इन पुस्तकों का भी अपना महत्व है।
अमरकांत का संपूर्ण कथा साहित्य बड़ा ही व्यापक है। आर्थिक तंगी और बीमारी के बाद भी अमरकांत की कलम सतत चलती रही। यह उनके परिश्रम का ही फल है कि उन्होंने अपने कथा संसार को इतना बृहत् रूप दिया।
साहित्यिक दृष्टि
प्रारंभ में अमरकांत का जुड़ाव रोमांटिक कहानियों से हुआ। वह समय भी 'रोमांटिक बोध` का था। इन दिनों अमरकांत शरतचन्द्र से बहुत प्रभावित रहे। ध्यान देने वाली बात यह भी है कि अमरकांत बलिया जैसे छोटे कस्बे में रहते थे। घर में 'चलता पुस्तकालय` के माध्यम से जो पुस्तकें उन्हें उपलब्ध होती वही वे पढ़ते थे। विद्यालय की किताबों में प्रेमचंद की कुछ एक कहानियाँ उन्होंने पढ़ी थी। पर विश्व साहित्य से उनका कोई संपर्क नहीं हो पया था।
जैसे-जैसे आगे चलकर उनका परिचय विश्व साहित्य से हुआ, वैसे-वैसे उनकी साहित्यिक दृष्टि भी बदलने लगी। वैसे रोमांस और आदर्श से युक्त होने के कुछ और कारणों पर प्रकाश डालते हुए वे स्वयं कहते हैं कि, ''रोमांस और आदर्श से मुक्त होने का एक प्रमुख कारण आज़ादी के समय विभाजन और फलस्वरूप हुआ नरसंहार भी था। आप समझ ही रहे होंगे कि हमें आज़ादी नरसंहार के बीच मिली। इसका भी एक बड़ा 'सेट बैक` लगा। जो लोग देश और भारतमाता के लिए बड़े-बड़े आदर्श बोलते थे वे ही लोग सत्ता और पद के लिए विभाजन की बात करने लगे, जिसका परिणाम नरसंहार हुआ, उससे आदर्श के प्रति जो एक गहरी भावात्मकता थी वह टूटी और यह समझ में आया कि आदर्श कोई हलुआ नहीं है, जिसे खा लिया जाय। आदर्श यथार्थ के बीच से आना चाहिए न कि कोरी कल्पना या भावात्मकता से।``22 यहाँ पर अमरकांत प्रेमचंद के 'यथार्थोन्मुख आदर्शवाद` के करीब दिखायी देते हैं।
प्रेमचंद के साहित्य को पढ़कर अमरकांत समाज के एक नए स्वरूप से परिचित हुए। समाज में व्याप्त अंधविश्वास, शोषण, कुरीतियाँ आदि को देखने की उनकी एक नई दृष्टि विकसित हुई। अमरकांत के विचारों का सार यही है कि व्यक्ति विशेष यथार्थ जीवन में जो संघर्ष करता है, उसके लिए उसके अंदर कुछ आदर्शों का होना जरूरी है। यथार्थ से संघर्ष करते हुए ही व्यक्ति आदर्शों का निर्माण कर सकता है। इसके बिना आदर्श के अस्तित्व की व्यावहारिकता पर ही प्रश्न चिन्ह लग जाता है। और जो चीज व्यावहारिक न हो उसका जीवन से क्या प्रयोजन हो सकता है?
साहित्यिक रचनाओं की सफलता अमरकांत के अनुसार रचना विशेष में निहित संवेदनात्मक ज्ञान पर आधारित होती हैं। इस संदर्भ में वे स्वयं कहते हैं कि, ''जो रचनाएँ द्ंवद्वशून्य होती हैं, जिनमें संवेदनात्मक ज्ञान का अभाव होता है, जो फैशन का अन्धानुकरण करके शिल्प की कृत्रिम बुनावट करती हैं, जो वस्तुनिष्ठ नहीं होती और जिनमें मात्र आत्मगत सत्यों का प्रक्षेपण होता है - ऐसी समस्त रचनाएँ कई कारणों से अपने समय में प्रसिद्ध होने के बावजूद कालान्तर में प्रभावहीन एवम् निरर्थक हो जाती हैं।``23
साहित्य सृजन के पीछे अमरकांत जो आधारभूत तत्त्व मानते हैं, वे हैं - गहरी संवेदना, सामाजिक यथार्थ की समझदारी और ऐतिहासिक एवं प्रगतिशील जीवन दृष्टि। स्वयं अमरकांत कहते हैं कि, ''.....लेकिन वास्तव में जिसे साहित्य कहते हैं, उसका सृजन किसी राजनैतिक फार्मूले, विधि निषेधों अथवा कर्मकाण्डों के आधार पर नहीं होता, बल्कि उसके पीछे गहरी संवेदना, सामाजिक यथार्थ की समझदारी और ऐतिहासिक एवं प्रगतिशील जीवन दृष्टि होती है। साहित्यिक कृतियों पर सेन्सर लगाने का मैं समर्थक नहीं हूँ, क्योंकि उससे देश का सांस्कृतिक विकास कुंठित एवं अवरूद्ध हो सकता है।``24
अमरकांत साहित्य को 'स्वतंत्र व्यक्ति की स्वतंत्र व्यक्ति से बातचीत` वाली विचारधारा का समर्थन नहीं करते। उनके अनुसार, ''प्रश्न यह है कि जब समाज में गरीबी, शोषण, गुलामी, अशिक्षा, भ्रष्टाचार, झूठ आदि हावी हों, वैसी स्थिति में स्वतंत्र व्यक्ति कौन होगा? आखिर साहित्य में इस प्रकार का नारा क्यों दिया जाता है?``25 अमरकांत मानते हैं कि साहित्य का उद्देश्य व्यापक होता है। समाज की यथार्थ और वास्तविक स्थितियों से विमुख होकर साहित्य कभी भी अपने व्यापक उद्देश्य में सफल नहीं हो पायेगा। जो साहित्यकार या बुद्धिजिवी इस बात को नहीं मानते उन्हें 'स्वतंत्र व्यक्ति` की नई परिभाषा को बताना पड़ेगा। साथ ही साथ इस तरह की स्वतंत्रता का सामाजिक यथार्थ बोध से संबंध स्थापित करते हुए यह भी सिद्ध करना पड़ेगा कि वह किस तरह साहित्य के व्यापक उद्देश्यों की पूर्ति में सहायक हो सकेगा।
अमरकांत मानते हैं कि सत्य की खोज का कार्य अपने आप में बड़ा ही कष्टकारी होता है। एक साहित्यकार अपने समाज के साथ होता है। समय विशेष की सामाजिक व्यवस्था को वह पैनी नजरों से परखता है। विचारों की कसौटी पर उसे कसता है। अगर उसे कुछ गलत लगता है तो वह उस गलत व्यवस्था से टकराने का भी माद्दा रखता है। शासन व्यवस्था अत्याचारी लोगों के हाँथ में होने से न्याय संगत निर्णयों की संभावना नहीं रह जाती। अमरकांत कहते हैं कि, ''इन सभी खतरों के बीच उसे साहित्य की मशाल जलाये रखनी होती है। रचना रचनाकार से माँग करती है जीवन, समाज और जनता के निकट रहने की, उनसे कदम-कदम पर सीखने की, रचना के साथ घोर परिश्रम करने की, पठन-पाठन की।``26
कहानियों में सामाजिक यथार्थ और वैयक्तिक यथार्थ की सीमा पर अमरकांत कहते हैं कि, ''वैयक्तिक अनुभव या भोगे हुए यथार्थ के नाम पर साहित्य में बहुत-सी विसंगतियाँ आई हैं। इसके आधार पर नितान्त निजी यथार्थ का भी चित्रण लोगों ने किया है। वैयक्तिक यथार्थ में कभी-कभी निजी कुंठा, निजी संत्रास, घोर व्यक्तिवादिता के दर्शन होते हैं। वैयक्तिक यथार्थ के नाम पर, जो एक नारे की तरह है, बहुत-सी रचनाओं का खण्डन किया जाता है। रचना यथार्थ की सृजनात्मक अभिव्यक्ति है, वह रचना हमारे अनुभव क्षेत्र के अंतर्गत भी आ सकती है और उससे बाहर भी जा सकती है। वस्तुपरकता ही श्रेष्ठ रचना की जान है। यदि सच्चाई एकदम निजी भी हो तो भी उसे रचनात्मक विशिष्टता उसी समय मिलती है जब वह पूरे समाज की सच्चाई या युग की सच्चाई के रूप में उभरकर आती है।``27
कला और वस्तु के संतुलन के संदर्भ में अमरकांत का मत है, ''संतुलन कोई गणित थोड़े ही है। एक रचनाकार के लिए दोनों ही आवश्यक हैं। अगर कहीं कला ही कला है, वस्तु नहीं है तो समझिये जीवन ही नहीं है। कहीं अगर जीवन ही जीवन है, कला नहीं है तो वह पत्रकारिता हो जायेगी। लेखक अपने तरीके से दोनों का इस्तमाल करता है। लेखक का काम है जीवन को देखना और उससे बिम्ब प्राप्त करना। उसमें कला और वस्तु दोनों होता है। .....तराजू पर कला और वस्तु को संतुलित नहीं किया जा सकता। पर दोनों आवश्यक हैं। किसका कितना अनुपात है यह रचना के स्वरूप पर भी निर्भर करता है। साथ ही साथ यह 'एवर डेवलपिंग` चीज है। यह कोई स्थिर चीज नहीं है। यह बात लेखक की मेहनत व उसकी क्षमता पर भी आधारित है...........।``28
अमरकांत अपने आप को कम्युनिस्ट नहीं मानते। वे विचारधाराओं से प्रभावित होने की बात तो स्वीकार करते हैं पर किसी 'वाद विशेष` की चार दिवारी में अपने आप को कैद करना पसंद नहीं करते। साहित्यकारों की अवसरवादिता से वे काफी दुखी होते हैं। स्वस्थ प्रतिस्पर्धा के समर्थक हैं अमरकांत। अपने ऊपर वे राजनीति का भी प्रभाव स्वीकार करते हैं। वे स्वयं राजनीति की राह पर चलकर फिर लेखक बने थे। अमरकांत मानते हैं कि विचारधाराओं से प्रभावित होना गलत नहीं है। पर यथार्थ की भावभूमि पर अगर वे विचारधाराएँ अपनी उपयोगिता साबित न कर पायें, समाज में प्रगति का कारण न बन सकें तो फिर उनसे चिपके रहना ठीक नहीं है।
अमरकांत एक लेखक से पूरी ईमानदारी के साथ सृजन की आशा करते हैं। प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अन्यायी शासन के आगे बिना घुटने टेके उसका सामना करने के अमरकांत हिमायती हैं। अवसरवादी होकर लेखनी से समझौता करने वालों के प्रति उनके मन में दुख है। किसी 'वाद` की चार दीवारी उन्हें स्वीकार नहीं है। हर वो विचारधारा जो समाज, जनता और देश के हित में है उसे स्वीकार करने में उन्हें परहेज नहीं है। अमरकांत का सहित्यिक दृष्टिकोण बड़ा ही व्यापक एवम् उदार है।
उपर्युक्त विमर्श से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते है कि अमरकांत में बाल्य काल से ही सृजनधर्मी ऊर्जा विद्यमान थी। अनुकूल साधनों और सुविधाओं के अभाव में भी साहित्य के प्रति जो अभिरूचि उनमें बीज रूप में वपित हुई थी वह कभी कुंठित नहीं हुई। अध्ययनकाल में साहित्य के विद्यार्थी न होने पर भी, साहित्यिक गतिविधियाँ उन्हें नित्य आकर्षित करती रहीं।
सुयोग्य अध्यापक गणेश प्रसाद के साहचर्य में उनकी अंर्तनिहित साहित्यिक अभिरूचि दीप्त हो उठी। कविताओं के प्रति वाहन रूचि होने पर भी उन्हें यह अनुभव हो गया था कि काव्य रचना उनकी प्रकृति के अनुकूल नहीं है। इसलिए कविताओं का सुंदर पाठ करने में सिद्ध होने पर भी उन्होंने अपने लेखकीय कर्म के लिए कथा की विधा का वरण किया। और यह सुखद आश्चर्य था कि उनकी पहली ही कहानी 'इंटरव्यु` प्रबद्ध विद्वानों और आत्मीय मित्रों द्वारा मुक्त कंठ से सराही गयी।
'इंटरव्यु` से आरंभ होकर उनके कथा लेखन का क्रम आज तक अविराम गति से चलता रहा है।
अनेक घटनाओं और इनकी आत्मस्वीकृतियों के साक्ष्य पर हम देख चुके हैं कि जीवन के अनेक उतार - चढाव, आर्थिक संकोच, पारिवारिक दायित्व और स्वास्थ्य का असहयोग बार-बार उनके सामने आया किंतु उनकी रचनाधर्मिता न तो कभी कुंठित हुई और न ही शिथिल। इससे स्पष्ट होता है कि साहित्य लेखन ही उनके जीवन का आत्यंतिक व्रत रहा है।
साहित्य सृजन अमरकांत के लिए बैठे-ढाले अथवा मनोरंजन का उपक्रम कभी नहीं रहा। वे रचना कर्म को सामाजिक दायित्व और संसक्ति से जोडकर देखते हैं। इसलिए वैयक्तिक अनुभूति अथवा चेतना को रचना के धरातल पर सार्वभौमिक बनाकर ही देखना चाहते हैं। कोई भी विचारधारा यदि वह व्यापक कल्याण के अनुकूल नहीं है तो उनकी दृष्टि में वह रचनाकर्म में बाधक ही होगी। इसलिए वे मानते है कि लेखक की प्रतिबद्धता विचारधारा से नहीं आंतरिक ईमानदारी और मानवीय मूल्यों के साथ होनी चाहिए।
उन्होंने बाल साहित्य का भी प्रभूत लेखन किया है। इसका प्रमुख उद्देश्य संस्कार संपन्न और दायित्वयीन पीढ़ी का निर्माण करना है।
सारांशत: अमरकांत का संपूर्ण व्यक्तित्व जीवन के कठोर तपा से तपकर कंचन से कुंदन बनता रहा है। उन्होंने अपनी मूल्यनिष्ठा समाज संपृक्ति दायित्व चेतना और मानवीय संवेदना के आधार पर लेखकीय धर्म का निर्वाह किया है और आज भी उसी के प्रति निष्ठावान हैं। अमरकांत का संपूर्ण साहित्य उनकी इसी समर्पित और संकल्पित मूल्य चेतना का प्रमाण है।
1. | मेरा बचपन कब समाप्त हुआ: अमरकांत, अन्यथा पत्रिका, नवम्बर 2005, अंक 5, पृष्ठ क्रमांक 94. |
2. | मेरा बचपन कब समाप्त हुआ: अमरकांत, अन्यथा पत्रिका, नवम्बर 2005, अंक 5, पृष्ठ क्रमांक 95. |
3. | आत्मकथ्य: अमरकांत, अमरकांत के कृतित्व एवं व्यक्तित्व की पड़ताल (अमरकांत वर्ष-1), संपा. रवीन्द्र कालिया, ममता कालिया एवम् नरेश सक्सेना, पृष्ठ क्रमांक 12. |
4. | मेरा बचपन कब समाप्त हुआ: अमरकांत, अन्यथा पत्रिका, नवम्बर 2005, अंक 5, पृष्ठ क्रमांक 94. |
5. | मेरा बचपन कब समाप्त हुआ: अमरकांत, अन्यथा पत्रिका, नवम्बर 2005, अंक 5, पृष्ठ क्रमांक 95. |
6. | देश के लोग और वह: अमरकांत (अमरकांत वर्ष-1), संपा. रवीन्द्र कालिया, ममता कालिया एवम् नरेश सक्सेना, पृष्ठ क्रमांक 27. |
7. | देश के लोग और वह: अमरकांत (अमरकांत वर्ष-1), संपा. रवीन्द्र कालिया, ममता कालिया एवम् नरेश सक्सेना, पृष्ठ क्रमांक 34. |
8. | जरि गइले एड़ी कपार: शेखर जोशी (अमरकांत वर्ष-1), संपा. रवीन्द्र कालिया, ममता कालिया एवम् नरेश सक्सेना, पृष्ठ क्रमांक, पृष्ठ क्रमांक 40. |
9. | कुछ यादें कुछ बातें: अमरकांत (अमरकांत वर्ष-1), पृष्ठ क्रमांक 38. |
10. | 'विचारधारा लेखन का पर्याय नहीं है`, - साक्षात्कार, कथादेश मार्च 2006, पृष्ठ क्रमांक 17. |
11. | अमरकांत वर्ष एक: 'अस्तित्व`वादी कथाकार: राजेंद्र यादव, पृष्ठ क्रमांक |
13. | अमरकांत वर्ष 1, आत्मकथा, अमरकांत. |
14. | कुछ यादें कुछ बातें, अमरकांत. |
15. | अमरकांत वर्ष 1, रवीन्द्र कालिया, आत्मकथा, अमरकांत. |
16. | वसुधा पत्रिका, अंक जुलाई-सितंबर 2005, अमरकांत से चंद्रकांत पाण्डेय की बातचीत. |
11. | अमरकांत वर्ष एक, संपादक - रवीन्द्र कालिया, ममता कालिया एवम् नरेश सक्सेना, पृष्ठ क्रमांक 43 और 44. |
12. | वही, पृष्ठ क्रमांक 102. |
13. | वही, पृष्ठ क्रमांक 190. |
14. | कुछ यादें कुछ बातें, संस्मरण, लेखक - अमरकांत, पृष्ठ क्रमांक 11. |
15. | वही, पृष्ठ क्रमांक 12. |
16. | वही, पृष्ठ क्रमांक 32. |
17. | विचारधारा लेखन का पर्याय नहीं है : साक्षात्कार, कथादेश मार्च 2006, पृष्ठ क्रमांक 16. |
18. | देश के लोग और वह: आत्मकथ्य, अमरकांत की सम्पूर्ण कहानियाँ - खण्ड एक, पृष्ठ क्रमांक 4 और 5. |
19. | कुछ यादें कुछ बातें, संस्मरण, लेखक - अमरकांत, पृष्ठ क्रमांक 25. |
20. | आत्मकथ्य: अमरकांत, अमरकांत वर्ष एक, संपादक - रवीन्द्र कालिया, ममता कालिया एवम् नरेश सक्सेना, पृष्ठ क्रमांक 24 और 25. |
21. | अमरकांत से चंद्रप्रकाश पाण्डेय से बातचीत: साक्षात्कार, वसुधा, जुलाई-सितंबर 2005, पृष्ठ क्रमांक 121. |
22. | वही, पृष्ठ क्रमांक 119. |
23. | अमरकांत से डॉ. सत्यप्रकाश मिश्र की बातचीत: साक्षात्कार, अमरकांत वर्ष एक, संपादक - रवीन्द्र कालिया, ममता कालिया एवम् नरेश सक्सेना, पृष्ठ क्रमांक 108 |
24. | वही, पृष्ठ क्रमांक 108. |
25. | वही, पृष्ठ क्रमांक 110. |
26. | वही, पृष्ठ क्रमांक 115. |
27. | कुछ यादें कुछ बातें, संस्मरण, लेखक - अमरकांत, पृष्ठ क्रमांक 136 और 137. |
28. | मई 2006 में अमरकांत से लिए साक्षात्कार के आधार पर। |
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Alfraganus University में व्याख्यान
🔴HINDISTON | MA'RUZA 🟤Bugun Alfraganus universitetiga xalqaro hamkorlik doirasida Hindistonning Mumbay shtati Maharashtra shahrida jo...
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http://old.mu.ac.in/wp-content/uploads/2016/06/4.23-F.Y.B.A-Complusary-Hindi-final.pdf